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Monday, February 21, 2011

जिन्दगी !

जिन्दगी !

ज़िन्दगी छोटी ही सही लेकिन
खुशियों के साथ गम का सबब साथ लाती है |


मुस्कुराने की चाहत तो मेरी भी थी
पर उदासी इसे छीन जाती है |

अपने लिए तो सभी जीते हैं
औरों के लिए जीने की तमन्ना ही
जीने की एक आस दे जाती है |

Tuesday, February 8, 2011

काश ऐसा न होता !

हौसले भी थम जाते गर तूफ़ान ना आया होता |
दिन नहीं होते गर शाम ना आया होता ||

काँटों से कोई दामन ना बचाया होता |
गर फूलों से भी जख्म ना खाया होता ||
...
इबादत के अल्फाज़ ना आये होते
गर कोई किसी का दिल दुखाया ना होता ||

ये वक्त की नजाकत है वरना साहिल ना होते
गर खुदा ने सागर की गहराई ना बनाया होता ||


Sunday, December 5, 2010

ख्वाब था शायद !

नींद आ जाती मुझे भी, अगर उनकी बाहों का सहारा होता|
बन जाता रेत भी अगर उनका प्यार किनारा होता ||


रातें अब भी उतनी ही खामोशी से रोज आते हैं |
आँखें खुली रह जाती हैं,और हम उन्हें सोच पाते हैं||


उनसे वादा किया था कि अब उन्हें सपनो में भी नहीं लाउंगा|
भावनाओं और जज्बातों के बोल कभी नहीं लिख पाउँगा||


मेरी परछाई ने भी है ,अब मुझसे नाता तोड़ लिया|
जीवन के हर रंग से मैं ने अब अपना मुंह मोड़ लिया ||


Friday, October 22, 2010

आपके लिए !

ये न दिल का दर्द है, न दिल की आवाज ,अफसानों के आँगन में बैठ कर यादों के झरोखे से जब बाहर की दुनिया देखता हूँ तो भाव बर्बश बोल बन जाते हैं।


तन्हाई के साये हैं और आँख मिचौली करती जिन्दगी .
रूठ गया न अब तक माना मैं कैसे करूं उसकी बन्दगी .

पत्थर नहीं इंसान हैं हम कैसे सहें उनके ये सितम.
अल्फाजों का अब क्या कहना,क्या ये बन पायेंगे मरहम .

बीते पल को याद करूं ,वो याद ही बन जाते हैं गम.
घर भी अब सूना लगता है , जब छत पड़ जाते है कम.

मान लिया था खुदा उसे जिसकी कभी न की खुदाई .
पीड पडाई देखी थी ,अब सहनी पड़ेगी हमें भी जुदाई .

Monday, July 12, 2010

मौन हैं शब्द !

कभी ख्वाब में भी नहीं सोचा था ऐसा होगा |
जिसे मै कहता था अपना खुदा वो जुदा होगा ||

खुदा की बन्दगी कभी कर नहीं पायी |
इस खुदा से खुद की है ये कैसी जुदाई ||

आज गुमशुम सी जिन्दगी में तन्हा जीना पड़ता है |
वक्त की नजाकत को देखकर यूं ही मौन रहना पड़ता है ||

उनकी शिकायत है कि मैं सच नहीं बोलता |
शब्दों से हुई गुस्ताखियों को कभी नहीं तौलता ||

अनायास खुद को इतना अकेला पाता हूँ |
मरना भी कम लगता है, अगर मैं मरने जाता हूँ ||

Friday, May 28, 2010

नक्सली होने का दंभ !

आदर्श की बात वो करते हैं , जीवन की लड़ाई इंसानों से लड़ते हैं
वो बात कहाँ हैं इनमे अब ,जिस पर ये नक्सली होने का दंभ भरते हैं

इस प्रजातंत्र में भी देखो सरकार तो इनसे डरते हैं
वो बात कहाँ हैं इनमे अब ,जिस पर ये नक्सली होने का दंभ भरते हैं |

हिंसा का दामन थामे हैं ये हक़ की लड़ाई लड़ते हैं |
वो बात कहाँ हैं इनमे अब ,जिस पर ये नक्सली होने का दंभ भरते हैं ||

जज्बातों में उठी बन्दूक में ये प्रतिशोध की गोली भरते हैं |
वो बात कहाँ हैं इनमे अब ,जिस पर ये नक्सली होने का दंभ भरते हैं ||

अब आम लोग भी चौपालों पर इनकी रणनीती पर हसते हैं |
वो बात कहाँ हैं इनमे अब ,जिस पर ये नक्सली होने का दंभ भरते हैं ||

Thursday, May 6, 2010

आधी बात कही थी |

आधी बात कही थी तुमने और आधी मैं ने जोड़ी |
तब जाकर बनी एक तस्वीर सच्ची झूठी थोड़ी थोड़ी||

नटखट सी बातों के पीछे दुनिया भर का प्यार छुपा था |
मुस्काती आँखों ने जाने कैसे कैसे स्वप्न बुना था ||

भींग गयी मेरी भी आँखें भोर का स्वप्न कहाँ पूरा हुआ था |
आज उसे हम कह दें अपना इस ख़त में ऐसा लिखा हुआ था ||

उनके शब्दों में अब उनकी तस्वीर नजर आ जाती है |
सोचा ना था ऐसा होगा लेकिन उनकी याद तो आ जाती है ||

Thursday, April 22, 2010

रिश्तों की पहचान

उनके खत की सादगी में खुद को अकेला पा रहा था।

स्याह में संलिप्त होकर भी खुद को मैं तन्हा पा रहा था॥


कभी देखा था तागे बुनने में गांठ नहीं आती थी।

रिश्तों में आयी गांठ को मैं मिटा रहा था ॥


कोरे कागज़ पर लिखता था कभी उनकी याद को ।

आज सूनेपन में फिर से उनको क्यों बुला रहा था ॥


उदासी के सवब को कभी वो बेताब होकर पुछा करते थे।

रात के अंधेरे में आखों के पानी को अब क्यों मिटा रहा था॥

Saturday, March 27, 2010

इश्क बदल गया

वो शाम पुरानी लगती है वो जाम पुरानी लगती है |
अफसानों के आँगन में अब हर काम पुरानी लगती है ||

जिन्दा हूं और रोज जीने की कोशिश करता हूं।

बद्लते जमाने और इश्क के मर्म में मरने से भी अब डरता हूँ ||


इश्क की आहट सुन अब क्यों जिन्दा ही मर जाता है |

अब जाकर जाना है कि दिल की दुनिया में प्यार भी एक समझौता है ||

अरमानों के इस गुलशन में यादें ही आँखें भिंगोता है |

जब सारा आलम सोता है तो ये पगला क्यों रोता है ||

Wednesday, March 10, 2010

एक दिया बुझा हुआ !



ख़ून से जब जला दिया एक दिया बुझा हुआ|

फिर मुझे दे दिया गया एक दिया बुझा हुआ||


गम लिखूं या कम लिखूं इस खेल में फसा हुआ |
अतीत की वो याद है जो मिल गया खुदा हुआ ||


जिन्दगी के खेल में अकेलेपन का इन्तहा हुआ |
सोचने से पहले उनसे कोई लब्ज था बयाँ हुआ ||

सोच कर चला था मैं ,काफिला ही अब जुदा हुआ |
अपने थे जो बन गए , रकीब सा खफा हुआ ||

वो शाम की चिराग थी, जो बुझ गया जला हुआ |
रोशनी के अँधेरे में ,कुछ खो गया मिला हुआ ||







Tuesday, March 9, 2010

अल्फाजों का आशियाना



चाँद की चाँदनी में भी मेरा साथ बेगाना लगता है |
पहले मेरी आँखें मरहम और अब छुअन भी अनजाना लगता है ||

साहिल से दूर समंदर सा पीर अपना आशियाना लगता है |
प्यार की राहों में एक कंकड़ भी परवाना लगता है |

जिस हँसी कों बेताबी से देखा करती थी वो |
अब वही खुशी क्यों गम का फ़साना लगता है ||

शिकवा है मुझसे खुशी ना दे पायी पूरी |
पता है शायद उन्हें खुश होने में मुझे एक ज़माना लगता है ||

अल्फाजों और जुमलों में क्या बयाँ करूं|
अब इन बिखरे शब्दों कों पिरोना भी काम पुराना लगता है ||

Tuesday, February 2, 2010

खुद कों बताऊँ कैसे !


तुम्हारी आंखो के साहिल से दूर कहीं अपना आशियाना बनाऊ कैसे।

तिनकों के घरौंदे में अब रह्कर खुद को समझाऊ कैसे ॥

आरजू की तपिश में पिघलकर भी तेरा नाम ही अच्छा लगता है ।

विरह की आग मे जलकर खाक बन जाना अपना नसीब लगता है ॥

अपने वजूद को खोकर भी खुद को तेरी लौ में जलाउं कैसे।

खाली हाथ आयी इस शाम में तेरी यादों को भुलाउं कैसे ।।

वक्त के हसी सितम ने अब मेरा दामन थाम लिया है ।

इंतजार की एक एक घडी ने मेरे प्यार को नया आयाम दिया है॥

Tuesday, January 26, 2010

कैसे समझायें उन्हें ?



उनकी एक बात पर पर मैं हैरां हो जाता हूं।

मेरे हाल पर जब उन्हें रोता हुआ पाता हूं॥


कैसे समझाउं उन्हें,कि मैं उनसे बफ़ा करता हूं।

आखें हो जाती है नम जब दर्द ए गम बयां करता हूं॥


रूह कांप उठती है जब वो मेरी बफ़ा को कोई नाम नहीं देती।

जीवन के उलझन में खुद की तन्हाई कोई मुकाम नहीं देती||


काश वो शाम फिर आती , जब मैं उन्हें मना पाता|

उन्हें अपनी आगोश में लेता और इस बेगानी दुनिया से दूर चला जाता ||

Monday, January 18, 2010

कवि की कल्पना

घूम गया जो चक्र, उसी की ओर देखता जाता हूं।

प्रशंसा के अल्फ़ाजों में ,खुद की लेखनी को पाता हूं॥


पथिक बना गन्तव्य को देख, लालच को अब अपनाता हूं।

घूम गया जो चक्र, उसी की ओर देखता जाता हूं||


शब्दों में अब वह जोश नहीं आवेश नहीं मैं पाता हूं।

घूम गया जो चक्र, उसी की ओर देखता जाता हूं||


वाह-वाह और बहुत खूब से मन को हर्षित कर पाता हूं|

घूम गया जो चक्र, उसी की ओर देखता जाता हूं||


कविता जीवन का श्रोत कहां, इसे हसीं का पात्र बनाता हूं|

घूम गया जो चक्र, उसी की ओर देखता जाता हूं||

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