Thursday, September 2, 2010

आज़ादी का जश्न

बड़े दिनों से नेट की दुनिया से दूर और महरूम था ,कारण मुझे पता नहीं ,यह एक सच है कि दूरी बन जाती है |आज एक लम्बे अंतराल के बाद कुछ लम्बे समय से लिखकर सहेजे हुए था उसे आज आपके समक्ष रख रहा हूँ ,आपके उसी सानिध्य की आस है ,जो मुझे पहले आप सबों से मिलता रहा है |

इस बार आज़ादी का जश्न घर पर मनाने का मौक मिला इसे हर साल बडे ही जोश और जुनून के साथ मनाया जाता है और इस बार भी कुछ ऐसा ही हुआ। मेरे दलान (दरवाजे)से थोडी ही दूरी पर गांव के हाइ स्कूल में “आज क्या है १५ अगस्त ,घर –घर दीप जलायेंगे खुशियां खूब मनायेगें” की शोर ने बचपन के उन दिनों की यादों को ताजा कर दिया जब हम हाफ़ पेंट और उजली कमीज में एक आध जलेबी और बुन्दिया के लालच में जोर -जोर से नारे लगाते थे और कतार मे खडे होकर देश भक्ति में डूबकर बापू, आज़ाद और भगत सिंह की जय –जयकार किया करते थे ।

उस हाइ स्कूल की हेड मेरी चाची हैं,और उन्होने कहा घर मे बैठे हो तो आ जाना ,तुम आ जाओगे तो काम बढ़िया से हो जाएगा |मेरे चाचा जी का छोटा बेटा नमन जिसकी उमर बारह साल की है , ने बडे मेह्नत से अंग्रेजी में लिखे भाषण को रट्टा मार कर याद किया था और प्राइज जीतने के केमिकल लोचे की वजह से सुबह से ही फूल लाने और भारत के नक्शा बनाने में व्यस्त था।

बदलते वक्त ने सिर्फ़ परिवेश और माहौल को नहीं बद्ला है बल्कि सोच भी बदल दी है। आजादी के मनाये देहाती जश्न के बाद उसने मुझसे कहा भैया आप से कुछ पूछना है, मेरी हामी भरते ही उसने सवालों को लाद दिया, आप ये बताइये “अगर देश१९४७ में आज़ाद हुआ तो अखबार में आता है कि जम्मू कश्मीर में लोग आज़ादी की मांग कर रहे हैं ऐसा क्यों क्या वो भारत में नहीं है? उसकी उमर और गांव के परिवेश को देखकर मैं ने ये सपने में भी नहीं सोचा था कि उसके सवाल इतनी गम्भीरता समेटे होंगे ।ना जाने और भी कितने उसके इस सवाल पर मैं मौन और अवाक रह गया और बहुत देर तलक यही सोचता रहा कि इसे कैसे समझाऊं।

आप अखबार नहीं पढ़ते हैं क्या उसमें तो एक फोटो आया था (ठहाका लगाते हुए )जिसमें एक बच्चा जीप जला रहा था! उसके शब्द जैसे चासनी में लिपटे हों और मेरे लिये जलेबी और बुन्दिया दोनो हो ,लेकिन उसके सवाल में जो लौंगिया मिर्च की करवाह्ट थी वो किसी के कान को झनझना दे लेकिन तब जाकर मुझे लगा कि सही मायनों में इसे आजादी का सही मतलब पता है, मैं तो सिर्फ़ बुन्दिया खाने पहुंच जाता था ।आज वो बचपन फिर से याद आ गया जब हमें ये पता नहीं होता था।पहले मैं भी पुरस्कार के लालच में भाषण दिया करता था लेकिन उसके इस सवाल ने मुझसे बार –बार यही पूछा कि क्या सही मायने में देश आज़ाद है

आज वक्त के साथ सब कुछ बदल गया है,बचपन की सोच ,आज़ादी मनाने के तरीके,और खुद को आज़ाद कहने का तरीक भी अगर नहीं बद्ला है तो वो है देश की दिशा और दशा जहां आज भी नक्सल्वाद और आतंकवाद की समस्या से देश जूझ रहा है|

नमन के सवालों क जवाब मैं उस पूरे दिन तो नहीं खोज पाया लेकिन इस मन की आवाज ने उत्तर दे दी कि हम कब तक आज़ादी की खोखली रस्मों को निभाते रहेंगे जहां डर के साये में हम या तो जीने को मजबूर हैं या फिर इस देश का भाग बनकर घुन के साथ दीमक की तरह पिस रहे हैं।

शायद नमन के सवालों का सही उत्तर मैं जब अगली बार उसे दे पाऊं क्योंकि तब तक वो भी दसवीं मे चला जायेगा और मुझे भी सोचने का खूब समय मिल जायेगा इसी आस के साथ वापस दिल्ली आ गया जहां पत्रकारिता जगत मे दूरदर्शन पर दिखाये गये सभी खबरों में उस सच को छानने की कोशिश की जो नमन के उन चन्द सवालातों के उत्तर दे सके लेकिन बेहद दुख होता है कि आज तक मैं उनके जवाब नहीं खोज पाया हूं।

देश की सरकार की तरह मेरे पास भी काफ़ी वक्त हैं और इन सवालों का उत्तर ढूढने की कोशिश में कई बुद्धिजीवियों से भी मिला लेकिन उन सवालातों का कोई तो उत्तर होगा, कोई तो निदान होगा बस यही आस है कि अगली बार नमन को सही उत्तर दे पाऊं, तब तक कश्मीर की समस्या भी हल हो जायेगी और मेरी समझ भी देश की अर्थव्यवस्था की तरह विकसित, जैसे देश की अर्थव्यवस्था हो रही है।

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