उनके खत की सादगी में खुद को अकेला पा रहा था।
स्याह में संलिप्त होकर भी खुद को मैं तन्हा पा रहा था॥
कभी देखा था तागे बुनने में गांठ नहीं आती थी।
रिश्तों में आयी गांठ को मैं मिटा रहा था ॥
कोरे कागज़ पर लिखता था कभी उनकी याद को ।
आज सूनेपन में फिर से उनको क्यों बुला रहा था ॥
उदासी के सवब को कभी वो बेताब होकर पुछा करते थे।
रात के अंधेरे में आखों के पानी को अब क्यों मिटा रहा था॥