Sunday, September 26, 2010

अनेकता मे एकता’ का देश?


बात इस साल के मार्च महीने की है ,जब मैं छुट्टियों में दिल्ली से अपने गांव गया था ,शाम हो चुकी थी,झिंगुर की आवाज बचपन के दिनों को याद दिलाने के लिये काफ़ी थे । लम्बे समय के बाद गांव गया था, इसलिये अपने दोस्त के घर जाने का इरादा बनाया। आज फिर उसी शाम की अजान को सुनकर मैं अपने दोस्त अरसद से मिलने जा रहा था,लेकिन उसके घर की तरफ़ उठे हर कदम एक सवाल बनकर मेरा माथा ठनका रहे थे | क्योंकि आज मां और दादा(पिता जी) के आव भाव देख कर मुझे डर और एक अजीब से एह्सास ने घेर रखा था। मेरा अरसद के घर जाना आज शायद उन्हें खटक रहा था |


जब हम सातवीं में पढ़ते थे तो हमारी दोस्ती हुई थी, मुझे इसके आगाज़ का पता ही नहीं चला ,और अन्जाम से बेसुध हूं |अगर ऐसा पता होता तो शायद हम दोस्ती नहीं कर पाते दादा के शब्दों में एक मुसलमान से दादा का दिल इस बात की इजाजत नहीं देता कि मैं अरसद के घर जाउं या उससे मिलूं ,वो साफ़साफ़ शब्दों में मना तो नहीं करते हैं ,लेकिन मेरे अरसद के घर जाने पर पहले की तरह खुश भी नहीं होते हैं | मां भी कह बैथती है कहां मियां-टोली(मुसलमान के मुहल्ले) जा रहे हो| दोनो अच्छे खासे पढ़े लिखे हैं , लेकिन उनकी इस नारजगी में मुझे एक मूर्खता दिखाई देती है |


जब इस दोस्ती की शुरूआत हुई थी तो मुझे लगा कि एक जिगरी यार मिला है, जो मेरे हर सुख दुख में मुझे अपना लगता है,और उसकी तरफ़ से भी कुछ ऐसा ही है| घंटों अरसद के घर पर जाकर बैठना ,पढ़ना, खेलना ,सैर सपाटे और टिफ़िन में स्कूल से भाग कर सात रूपये वाली फ़िल्म वी।सी।पी. पर देखने जाया करता था |उस समय न तो दादा रोकते थे और न ही मां कभी पूछा करती थी कि तुम इतने देर कहां थे |मैं कभी कभी उससे पूछ भी बैठता था यार हम दोनो की दोस्ती हमेशा ऐसी ही रहेगी ना |उसका जवाब होता था अगर तुम चाहोगे तो क्यों नहीं!

धर्म और मजहब का पाठ न मुझे तब भाता था और न अभी सुट करता है | हमारा एक दूसरे के साथ मिलना और समय बिताना ही अपने आप में सबसे बडा मजहब और धर्म होता था| ,लेकिन आज हमारी दोस्ती इतनी गहरी हो गयी है कि ये बात ना मेरे गांव वालों को पसन्द आ रही है और ना ही मेरे घर वालों को आखिर मेरी समझ में यह नहीं आ रहा है कि इसमें गलत क्या है वो मेरा दोस्त है ,हम अगर एक साथ खाना खा लेते हैं या बदना (पानी पीने का लोटा) में पानी पी लेते हैं तो क्या मैं मुसलमान हो जाउंगा । एक दिन रोजा रख लिया तो कौन सा धर्म परिवर्तन हो गया .


गांव में रिलाइंस बिग टी.वी और डी.टी.एच के छाते अब आसनी से देखने को मिल जाते हैं, अच्छी शिक्शा के लिये सरकारी स्कूलों की जगह मां-बाप अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूलों में भेजने लगे हैं । लेकिन इस बदलते युग ने आज भी लोगों की सोच क्यों नहीं बदली है?

दादा के मनाही के बावजूद जब मैं उस के घर गया और उसके साथ समय बिताया तो मुझे कुछ भी बदला हुआ नहीं लगा, वही प्यार,वही गर्मजोशी और दोस्ती कि वही मिठास बिल्कुल जलेबी की तरह मेरी समझ में आज यह बात नहीं आ रही है आखिर ऐसा क्यों हुआ,आदर्श की बात करने वाले दादा आज क्यों बदल गये हैं| क्या दादा ने आज हमारी दोस्ती में मजहब खोज लिया है |जो बचपन का प्यार था वो शब्दों की तलवार कैसे बन गयी है। आखिर आज वो अरसद से एक मुसलमान क्यों हो गया है| आज भी लोगों की सोच क्यों नहीं बदल पा रही है, वही पुरानी सोच वही अछूत और नीच वाली बात |


आज के दिन मन बहुत ही व्यथित हुआ,दादा की मौन मनाही ने जहां मेरे मन मे सवालों का पुलिन्दा खडा कर दिया था ,वहीं मां की भावनाओं ने भूखे सोने पर मजबूर । यह जान कर कि जात पात के इन भावनाओं से लोग कब खुद को अलग कर पायेंगे |' पोप्यूलर कल्चर वाले इस देश में लोग कब तक भटकाव,द्वन्द और दुविधा का दामन थाम कर एक अच्छे समाज की परिकल्प्ना करते रहेंगे?

आखिर अल्लाह और भगवान के बीच की ये दरार कब तक कायम रहेगी? आज भी शायद लोगों की सोच नहीं बदल पायी है,बदला है तो सिर्फ़ ग्लोबल बनने का तरीका और जात पात को परीभाषित करने का तरीका । जात-पात का चोला पहनकर इस देश को कैसे अनेकता मे एकता का देश कहा जाता है यह मेरी समझ से पडे है बिल्कुल मेरे दादा और मां की सोच की तरह |

Thursday, September 2, 2010

आज़ादी का जश्न

बड़े दिनों से नेट की दुनिया से दूर और महरूम था ,कारण मुझे पता नहीं ,यह एक सच है कि दूरी बन जाती है |आज एक लम्बे अंतराल के बाद कुछ लम्बे समय से लिखकर सहेजे हुए था उसे आज आपके समक्ष रख रहा हूँ ,आपके उसी सानिध्य की आस है ,जो मुझे पहले आप सबों से मिलता रहा है |

इस बार आज़ादी का जश्न घर पर मनाने का मौक मिला इसे हर साल बडे ही जोश और जुनून के साथ मनाया जाता है और इस बार भी कुछ ऐसा ही हुआ। मेरे दलान (दरवाजे)से थोडी ही दूरी पर गांव के हाइ स्कूल में “आज क्या है १५ अगस्त ,घर –घर दीप जलायेंगे खुशियां खूब मनायेगें” की शोर ने बचपन के उन दिनों की यादों को ताजा कर दिया जब हम हाफ़ पेंट और उजली कमीज में एक आध जलेबी और बुन्दिया के लालच में जोर -जोर से नारे लगाते थे और कतार मे खडे होकर देश भक्ति में डूबकर बापू, आज़ाद और भगत सिंह की जय –जयकार किया करते थे ।

उस हाइ स्कूल की हेड मेरी चाची हैं,और उन्होने कहा घर मे बैठे हो तो आ जाना ,तुम आ जाओगे तो काम बढ़िया से हो जाएगा |मेरे चाचा जी का छोटा बेटा नमन जिसकी उमर बारह साल की है , ने बडे मेह्नत से अंग्रेजी में लिखे भाषण को रट्टा मार कर याद किया था और प्राइज जीतने के केमिकल लोचे की वजह से सुबह से ही फूल लाने और भारत के नक्शा बनाने में व्यस्त था।

बदलते वक्त ने सिर्फ़ परिवेश और माहौल को नहीं बद्ला है बल्कि सोच भी बदल दी है। आजादी के मनाये देहाती जश्न के बाद उसने मुझसे कहा भैया आप से कुछ पूछना है, मेरी हामी भरते ही उसने सवालों को लाद दिया, आप ये बताइये “अगर देश१९४७ में आज़ाद हुआ तो अखबार में आता है कि जम्मू कश्मीर में लोग आज़ादी की मांग कर रहे हैं ऐसा क्यों क्या वो भारत में नहीं है? उसकी उमर और गांव के परिवेश को देखकर मैं ने ये सपने में भी नहीं सोचा था कि उसके सवाल इतनी गम्भीरता समेटे होंगे ।ना जाने और भी कितने उसके इस सवाल पर मैं मौन और अवाक रह गया और बहुत देर तलक यही सोचता रहा कि इसे कैसे समझाऊं।

आप अखबार नहीं पढ़ते हैं क्या उसमें तो एक फोटो आया था (ठहाका लगाते हुए )जिसमें एक बच्चा जीप जला रहा था! उसके शब्द जैसे चासनी में लिपटे हों और मेरे लिये जलेबी और बुन्दिया दोनो हो ,लेकिन उसके सवाल में जो लौंगिया मिर्च की करवाह्ट थी वो किसी के कान को झनझना दे लेकिन तब जाकर मुझे लगा कि सही मायनों में इसे आजादी का सही मतलब पता है, मैं तो सिर्फ़ बुन्दिया खाने पहुंच जाता था ।आज वो बचपन फिर से याद आ गया जब हमें ये पता नहीं होता था।पहले मैं भी पुरस्कार के लालच में भाषण दिया करता था लेकिन उसके इस सवाल ने मुझसे बार –बार यही पूछा कि क्या सही मायने में देश आज़ाद है

आज वक्त के साथ सब कुछ बदल गया है,बचपन की सोच ,आज़ादी मनाने के तरीके,और खुद को आज़ाद कहने का तरीक भी अगर नहीं बद्ला है तो वो है देश की दिशा और दशा जहां आज भी नक्सल्वाद और आतंकवाद की समस्या से देश जूझ रहा है|

नमन के सवालों क जवाब मैं उस पूरे दिन तो नहीं खोज पाया लेकिन इस मन की आवाज ने उत्तर दे दी कि हम कब तक आज़ादी की खोखली रस्मों को निभाते रहेंगे जहां डर के साये में हम या तो जीने को मजबूर हैं या फिर इस देश का भाग बनकर घुन के साथ दीमक की तरह पिस रहे हैं।

शायद नमन के सवालों का सही उत्तर मैं जब अगली बार उसे दे पाऊं क्योंकि तब तक वो भी दसवीं मे चला जायेगा और मुझे भी सोचने का खूब समय मिल जायेगा इसी आस के साथ वापस दिल्ली आ गया जहां पत्रकारिता जगत मे दूरदर्शन पर दिखाये गये सभी खबरों में उस सच को छानने की कोशिश की जो नमन के उन चन्द सवालातों के उत्तर दे सके लेकिन बेहद दुख होता है कि आज तक मैं उनके जवाब नहीं खोज पाया हूं।

देश की सरकार की तरह मेरे पास भी काफ़ी वक्त हैं और इन सवालों का उत्तर ढूढने की कोशिश में कई बुद्धिजीवियों से भी मिला लेकिन उन सवालातों का कोई तो उत्तर होगा, कोई तो निदान होगा बस यही आस है कि अगली बार नमन को सही उत्तर दे पाऊं, तब तक कश्मीर की समस्या भी हल हो जायेगी और मेरी समझ भी देश की अर्थव्यवस्था की तरह विकसित, जैसे देश की अर्थव्यवस्था हो रही है।

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