मनुष्य के स्वभिमानऔर अभिमान जैसी भावनाओ के उलझन में फस कर ये लिख बैठा |
अश्रु का मैं धार हूं या कोई प्रहार हूं।
मानवता का कोइ दूत हूं या कोई कुम्हार हूं॥
वक्त की मैं खोज हूं या कोई पुकार हूं।
भूत का मैं गर्त हूं या तुम्हें स्वीकार हूं।।
कट रही है जिन्दगी तलवार की दोहरी धार हूं।
जो मिट गया मिला नहीं, उस रेत की बहार हूं॥
अखण्ड हूं या शून्य हूं ,मगर किसी का प्यार हूं।
प्रलय की बहती धार हूं या जिन्दगी सवांर दूं॥
मिलूं तो कोहिनूर हूं या सुबह का ख्वाब हूं।
निश दिन का मैं कर्तव्य हूं या कोइ पडाव हूं॥
जिसका कोई अस्तितव नहीं वो एक हूं, अनेक हूं।
जलूं तो मैं चिराग हूं बुझूं तो फिर मैं खाक हूं॥
अश्रु का मैं धार हूं या कोई प्रहार हूं।
मानवता का कोइ दूत हूं या कोई कुम्हार हूं॥
वक्त की मैं खोज हूं या कोई पुकार हूं।
भूत का मैं गर्त हूं या तुम्हें स्वीकार हूं।।
कट रही है जिन्दगी तलवार की दोहरी धार हूं।
जो मिट गया मिला नहीं, उस रेत की बहार हूं॥
अखण्ड हूं या शून्य हूं ,मगर किसी का प्यार हूं।
प्रलय की बहती धार हूं या जिन्दगी सवांर दूं॥
मिलूं तो कोहिनूर हूं या सुबह का ख्वाब हूं।
निश दिन का मैं कर्तव्य हूं या कोइ पडाव हूं॥
जिसका कोई अस्तितव नहीं वो एक हूं, अनेक हूं।
जलूं तो मैं चिराग हूं बुझूं तो फिर मैं खाक हूं॥