Thursday, December 17, 2009

कोपेनहेगेन का " Pain "








प्रत्येक
सजग मानव को आज भली भांती जलवायु परिवर्तन की जानकारी है ।जलवायु परिवर्तन के कटु सत्य को हम झुठला नही सकते । हम सीधे शब्दों मे कह सकते हैं कि हमारी आवश्यकता ही समस्या बनती जा रही है । मुझे बचपन की एक कहावत याद आती है “ आवश्यकता ही आविष्कार की जननी है”। वो दिन दूर नही जब लोगो कि आवश्यक्ता ही नही बचेगी क्योंकि लोग ही जीवित ही नही रहेंगे। क्या ऐसा हो सकता है ? यह प्रश्न आज हर व्यक्ति के मन में कौंध रहा है । विश्व औसत से कहीं अधिक तेजी से हिमालय पिघल रहा है ।यह अगले चालीस साल में पिघल कर समाप्त हो जायेगा ।,यह तो महज एक अनुमान है ।सच इससे भी कहीं ज्यादा दिल दहलाने वाला है ।

पृथ्वी का तापमान बढ़ रहा है , ग्लेशियर पिघल रहे हैं |अंटार्कटिक की बर्फ की चादर की मोटाई कम होती जा रही है आख़िर इसका उपाय क्या है |कोपेनहेगन में चल रहे बैठक की मूल व्यथा यही है |विश्व के तमाम वैज्ञानिक इस बात पर माथा पच्ची करने के लिए एक जुट हुए है |और ये सब हो रहा है हमारी आपकी ज़रूरतों के कारण|समुद्रों का जलस्तर दिन बदिन बढ़ता जा रहा है रहा है ये सच है. वैज्ञानिक जुटे हैं ऐसे तरीक़े खोजने में जिससे ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम किया जा सके |आख़िर इस समस्या से कैसे निजात पाया जाए |

जलवायु
परिवर्तन को लेकर कोपनहेगन में चल रहे अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में ऊंट किसी करवट बैठता नही दिख रहा है | विश्व स्तर पर कोई कारगर सहमति बनाने की कोशिश शायद नाकाम होती दिख रही है |विकसित और विकासशील देशो के बीच होने वाले इस समझौते में सकाराक्त्मक परिणाम की अपेक्षा शायद ही सम्भव दिख रही है | विकसित देश अपनी शक्ति का फायदा उठाकर ये कह रहे है की हम विकासशील देशो पर नजर रखेंगे | अरे भाई आप कौन होते है हमारे ऊपर नजर रखने वाले | एक बार फिर जहाँ अमेरिका की दादागिरी देखने को सामने आ रही है |वहीँ भारत अपनी वायदे पर खड़ा उतरने में पीछे हटता नही दिखा रहा है | भारत का रुख इस मुद्दे पर सकारात्मक है और भारत एक भेदभाव से परे, व्यापक और सभी के हित में होने वाले समझौते के लिए प्रतिबद्ध है.|

आज से दो साल पहले ओबामा के भाषण की शुरूआत “The planet is in peril” जैसे वाक्यों से हुआ करती थी ।लेकिन वर्तमान समय में वो भी इस मुद्दे पर बुश के नक्शे कदम पर ही चलते दिख रहे हैं विश्व स्तर पर आज ओबामा की कथनी और करनी में दिखे विरोधाभाष को उन्हें फिर से भाषण के जरिये ही सही लेकिन गलत साबित करना होगा ।वो विश्व के राष्ट्रपति नहीं है, इस बात को उन्हें समझना होगा। सबसे पहले वो अपने देश का प्रतिनिधितव करते हुए कार्बन उत्सर्जन में कमी की बात पर सहमति जत्तायें। विश्व के उद्यमी वर्ग इस जुगात मे हैं कि उन पर ज्यादे पाबन्दियां ना लगे ।

वैश्वीकरण के इस दौर में कोई भी देश क्यों ना हो वो किसी से पीछे नही रहना चाहता है| विकसित और विकास शील देश के बीच बढ़ती आर्थिक खाई शायद विश्व के हित में ना हो । जलवायु परिवर्तन का बुरा असर दुनिया के निर्धन देशो पर सबसे अधिक पड़ेगा |करोडो लोगो को पानी नही मिलेगा फसले नष्ट हो जायेगी और हम मूक बनकर देखते रहेंगे क्योंकि हमे विकास के पथ पर अग्रसर होना है |विकसित देशों के और विकसित होने का यह सपना शायद विश्व के गरीब देशों के लिए काल साबित होगा |आज भारत जैसे देश में लोगो को पानी की समस्या से दो चार होना पड़ रहा है तो पचास साल बाद क्या स्थिति होगी इसका अंदाजा अभी से लगाना और फिर भी उस पर अम्ल नही करना कौन सी होशियारी है पता ही नही चलता है |

क्योटो प्रोटोकॉल पर हस्ताक्षर के मसौदे ,कार्बन उत्सर्जन में कमी ,ये महज एक औपचारिकता है। जो जल्द ही पूरी हो जायेगी | जलवायु परोवर्तन के कटु सत्य से हम अपना मुह नही फेर सकते है |देश और विश्व को बचाने के लिए सबों को एक जुट होना ही पड़ेगा |विकसित देशों और विकासशील देशों के बीच ग्रीन हाऊस गैसों में कटौती के बारे में मतभेद हैं| बीस प्रतिशत से कम जनसंख्या वाले विकसित देश इस प्रदूषण में 50 प्रतिशत से ज़्यादा योगदान दे रहे हैं. अब भारत चीन पर गैसों की कटौती का दबाव क्या दुनिया की ग़रीब जनता को ग़रीब रखने और पश्चिमी देशों का दबदबा बनाए रखने का ढकोंसला है। हालांकि सम्मेलन में कुछ विकसित देशों ने जंगलों को बचाने के लिए 3.5 अरब डॉलर देने का एलान किया है. ब्रिटेन, अमरीका, ऑस्ट्रेलिया, जापान, नार्वे और फ़्रांस ने अगले तीन सालों में ये रकम नगद देने का वादा किया है|
माना जा रहा है कि दुनिया में हो रहे कार्बन उत्सर्जन का बीस प्रतिशत कटते हुए जंगलों की वजह से है।उम्मीद की जा रही है कि ये पैसा विकासशील देशों में जंगलों की कटाई को कम करने, रोकने और अंतत: नए पेड़ लगाने की प्रक्रिया को शुरू करने में सहायक होगा. पर्यावरण परिवर्तन के कटु सत्य से हम अपना मुह नही मोड़ सकते है आज देश ही नही वरन विश्व के सामने एक ऐसी समस्या आ खड़ी हुई है जिसका निदान निकट भविष्य में दुरूह दिख रहा है |
फिज़्ज़ी हो या वेटिकेन सिटी विश्व का कोई भी देश नही बच पायेगा |मानवता का समूल नाश हो जाएगा | प्रकृति पर विजय पताका फहराने वाली ,सोच रखने वाली इस मनुष्य जात की सोच में अब कौन सा उत्पात मच गया है की इन्हे विश्वस्तरीय बैठक की बात दिखने लगी |सुख और समिर्धियो को प्राथमिकता देने वाला ये मनुष्य शायद यह नही सोच रहा है की उसके भोग विलासिता वाली इस जिन्दगी के लिए ये पृथ्वी ही नही बचेगी |ये पूरे विश्व को एक चेतावनी है की वो अभी भी सचेत हो जाए अन्यथा सृष्टि के इस अजीब सी संरचना का विनाश देखने को तैयार रहें |पर्यावरण परिवर्तन एक कटु सत्य है जिससे आंखे चुराना शायद मानवता के हित में नही होगा |

विश्व के सामने आज एक ऐसा परिदृश्य बनता जा रहा है जो कल का डर सामने लाकर आइने में उसका चेहरा दिखा रहा है |जिस आईने से हम अपना मुह नही फेर सकते है जो डरावना भी उतना ही है |कल्पना मात्र से डर लगता है की विश्व बिना जल के और पृथ्वी बिना मनुष्य के | आवश्यकता आविष्कार की जननी है और ये आविष्कार ही मानवता का दुश्मन बनेगी |
आप क्या सोच रहे हैं ?

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