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Thursday, January 28, 2010

सानिया की समझ !


भारत की टेनिस स्टार सानिया मिर्ज़ा की सोहराब मिर्ज़ा से सगाई टूट गई है|टेनिस की दुनिया की एक खूबसूरत बाला ने इसे खुद का फैसला बताया है |शायद सानिया समझ गयी ! टेनिस की सनसनी कही जाने वाली सानिया का यह, या तो परिपक्व समझ है या फिर खेल से उनका प्रेम यह तो अभी भविष्य के गर्भ में है लेकिन एक बात तो स्पष्ट है की इन खिलाड़ियों कों आदर्श मानने वाले भारतीय नवोदित युवा खिलाडियों के लिए एक आस फिर जग गयी है | क्या सानिया फिर से कोर्ट पर मेहनत करते हुए ज्यादे और जिन्दगी कों सहजता से लेते हुए कम देखी जायेंगी ?

कुछ दिनों पहले सानिया मिर्जा़ की ओर से बयान आया था कि वो शादी के बाद टेनिस से संन्यास ले लेंगी| सानिया के इस बयान ने उनके चहेतों का दिल तोड़ दिया था |लेकिन इसे किस्मत का खेल कहें या देश कों टेनिस की दुनिया में कुछ और सम्मान दिलाने का मौक़ा |एक टेनिस प्रेमी के रूप में देश के तमाम लोग उन्हें खेलते हुए देखना चाहेंगे|अंतरराष्ट्रीय रैंकिंग में 34 वें नंबर तक पहुँचने वाली सानिया का करियर चोटों से जरूर प्रभावित रहा है लेकिन वो शायद इसे बेहतर कर सकती है |

साल २०१० की शुरूआत सानिया के लिए ज्यादे अच्छी नहीं कही जा सकती है | उनके सगाई के बाद के बयान से सगाई टूटने तक हर एक टेनिस प्रेमी के मन में एक सवाल उभर रहा है की क्या वो फिर से उसी रंग में दिखेंगी जिसके लिए उन्हें इतनी सोहरत मिली थी |क्या उनका कैरियर ढलते सूरज की तरह तो नहीं जो पश्चिम दिशा की और चल चुका है ? अब हम सब कों इस बात का इंतज़ार है की क्या सानिया की समझ उनके लिए कुछ अच्छे पल लाएगा ?
वक्त की नजाकत कों दखते हुए तो बस हम यही कह सकते है की खुदा उनकी जिन्दगी में समिर्धी और खुशहाली दे |उनका निजी जीवन खुशियों से भर जाए , और वो देश कों टेनिस के रैकेट के माध्यम से चन्द और खुशियाँ दे पाएं आज जिसे वो पारस्परिक समझ कह रही है क्या ये उनकी जिन्दगी में एक खिलाड़ी के रूप में उन्हें फायदा देगा या नुकसान ये तो आने वाला समय ही बताएगा |

Tuesday, January 26, 2010

गणतंत्र पर शाब्दिक हमला


देश में कल गणतंत्र की धूम दिखी इसी बीच एक और बात जो प्रचुर मात्रा में देखने कों मिली वो थी कागजी मीडियाके महारथी का देश के नाम शाब्दिक पटुता का एक नया अंदाज़ | ये कोई नयी बात नहीं थी |शब्दों के कुशलकारीगर गणतंत्र पर देश की खामियों कों गिनाने में लगे हुए थे |सुबह से लेकर शाम तक मैं ने करीब दस आलेखऔर कुछेक ब्लॉग पढ़े सबके सब शाब्दिक चिंता में डूबे दिखे वजह देश की आजादी के लम्बे अरसे बाद भी देश केस्थिति का चरित्र चित्रण |मेरी समझ में एक बात बिलकुल नहीं आयी ये आखिर कलम के जादूगर कहना औरकरना क्या चाहते है |
क्या देश की खामियों कों गिनाकर कोई क्रांती लायी जा सकती है जिसकी नीव बदलाव के साथ रखीजायेगी |क्यागणतंत्र पर राजपथ की परेड कों फिजूलखर्ची कहने से गरीबों का पेट भर जाएगा |कलम के बादशाहों कों शायद येपता नहीं की उनके शब्द में अब वो ताकत नहीं है, जो गांधी, दिनकर और भगत की लेखनी में हुआ करते थेआखिर ये अपनी शाब्दिक पटुता कों काली स्याही के रंग में रंग कर साबित क्या करना चाहते है |चन्द पैसों केलिए कलम चलाने वाले ये महानुभाव लेखनी से ही देश की गरीबी ,भूखमरी और नक्सलवाद जैसी समस्याओं कासमूल नाश करने का बीड़ा उठा रखा है |

ये सवाल उन प्रबुद्ध जनों से नहीं है जो देश की उपलब्धियों कों धता बताते है और शब्दों में ही सुधार की गुंजाइशदेखते है |काश ऐसा हो पाता ! सही मायने में ये लोकतंत्र से ही एक सवाल है |जहाँ गणतंत्र और स्वतंत्र होने के भीदिवस कों मनाया जाता है |शाब्दिक प्रबुधता से देश का कल्याण नहीं हो सकता है |इस देश में लिखने वालो कीकोई कमी नहीं है जो अपनी शाब्दिक पटुता से देश हित की कागजी बातें करते करते खुद कों ख़तम कर लेते हैलेकिन सुधार के नाम पर बासठ सालो में तो कुछ भी देखने कों नहीं मिलता |ये सवाल सिर्फ सिर्फ प्रबुद्ध जनों केमन मष्तिष्क में ही नहीं उभरा है , मैं और मेरे जैसे पत्रकारिता के कुछ मेरे दोस्त भी इस दौर में शामिल है |शब्दका अस्तित्व ही क्या है .....क्या आग कहने से आग जलने लगती है , क्या पानी कहने से प्यास बुझ जाती है |नहींबिलकुल नहीं |
सब अपना भड़ास सिर्फ शब्दों में निकालकर शांत हो जायेंगे फिर अगले साल गणतंत्र आयेगा और खुद कों आमआदमी के लेबल से चिपकाकर ये अगली बार फिर लिखेंगे जिनके इन्हें चन्द पैसे मिल जायेंगे | शब्द देश काकल्याण करते तो ये कलम के जादूगर देश और देश की आम जनता के लिए सरकार का ध्यान आकृष्ट करवा पातेदेश के गणतंत्र और स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या और दिवस पर ऐसे ही आलेख लिखे जायंगे ,हम जैसे मूकपाठक उसे पढ़कर मौन रहने का संकल्प लेंगे और अगली बार फिर देशहित और समाज के समग्र विकास कीपरिकल्पनाओं में खुद कों शाब्दिक शेर साबित करेंगे |
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Sunday, January 24, 2010

विज्ञापन पर विवाद


अंगरेजी में एक कहावत है “Haste is sure to make us go wrong” और इस कहावत कों चरितार्थ करते हुएदिखी भारत सरकार के द्वारा देश के प्रमुख अखबारों कों दिए गए विज्ञापन |देखने कों कुछ ऐसा मिला जब सरकारके एक प्रमुख अख़बार को दिए सरकारी विज्ञापन में पाकिस्तान के पूर्व एयर चीफ़ मार्शल की तस्वीर होने परविवाद पैदा हो गया | ये विज्ञापन भ्रूण ह्त्या के विरोध में आम जनता से एक अपील है | भ्रूण-हत्या के ख़िलाफ़अपील करने वाला ये विज्ञापन महिला और बाल विकास मंत्रालय ने तैयार किया है|

विज्ञापन में कई जानी-मानी हस्तियों की तस्वीरों के साथ पाकिस्तान के पूर्व एयर चीफ मार्शल तनवीर महमूदअहमद की तस्वीर भी छपी है|इस विज्ञापन में जानी-मानी हस्तियों का उल्लेख देते हुए इन्हें जन्म देने वाली माँकी अहमियत के बारे में बताया गया है और गर्भ में बच्चियों को न मारने की अपील की गई है| इस अपील नेविवाद का दामन पकर लिया है | इसे लापरवाही कहें या भूल , ये बात तो बिलकुल स्पष्ट हो गयी है की सरकार केद्वारा दिए गए विज्ञापनों में अगर ऐसी चूक हो सकती है , तो मीडिया के विश्वसनीयता पर सवाल तो खडा होगा ही |

लेकिन इस बार मीडिया दोषी नहीं है | मौजूदा व्यवस्था के तहत विज्ञापन में छापी जाने वाली सारी सामग्रीडीएवीपी को संबंधित मंत्रालय देता है. डीएवीपी का काम प्रूफ़ के तौर पर विज्ञापन को देखना और फिर छपवाने काहोता है|तो मीडिया इसमें कोई काट छांट कर ही नहीं सकती है |इसे गैर जिम्मेदारी कहें या फिर सरकार कीअनदेखी जिसके कारण ऐसी गलतियां होती है |सरकार ने इस गलती के जांच के लिए कमिटी का गठन भी करदिया है और देश की आम जनता से माफी भी माँगी है |लेकिन सवाल यह खडा होता है की जांच और कमिटियाँ तोमुद्दे के ठन्डे बस्ते में जाने के बाद ज्यादे कुछ कर नहीं पाती है |

विपक्ष कों सरकार के खिलाफ चिल्लाने के लिए मुद्दे चाहिए जो उसे समय समय पर मिलता भी रहता है |भारतीयजनता पार्टी (भाजपा) ने इस पर कड़ी प्रतिक्रिया जताते हुए महिला और बाल विकास मंत्री कृष्णा तीरथ कोमंत्रिमंडल से हटाने की माँग की है|आम जनता के मन में प्रश्न यह है की आखिर ऐसी चूक के लिए जिम्मेदार हैकौन ? सरकार ,उसका मंत्रालय या विज्ञापन एजेंसी |आखिर सवाल यह है की पाकिस्तान के पूर्व एयर चीफ़ मार्शलकी तस्वीर को एक मंत्रालय के विज्ञापन में लगाए जाने का क्या उद्देशय है| क्या भारत के वायु सेना अध्यक्ष, थलसेना अध्यक्ष या नौसेना प्रमुख की तस्वीर यहाँ नहीं लगाई जा सकती थी|सरकार इस मामले में अपनी दलील पेशकर रही है ,लेकिन यह तो आम जन की भावना कों आहत करने वाली बात है|

विज्ञापन में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, संयुक्त प्रगतिशील गठबंधऩ (यूपीए) की चेयरमैन सोनिया गांधी, भारत कोमें वर्ल्ड कप दिलाने वाली क्रिकेट टीम के कप्तान कपिल देव, बल्लेबाज़ और मौजूदा भारतीय क्रिकेट टीम केउप कप्तान वीरेंदर सहवाग, पद्म विभूषण से सम्मानित सरोद वादक उस्ताद अमजद अली ख़ान और उनके बेटोंअमान और अयान अली बंगश के साथ पूर्व पाकिस्तानी सैन्य अधिकारी की तस्वीर छपी है।
विज्ञापन भले ही अपने मकसद में कामयाब बताया जा रहा हो लेकिन इस गलती की जिम्मेदारी या अपराधबोधजैसी कोई भी बात सरकार की तरफ से नहीं दिखाई दे रही है |आम जनता के मन में एक सवाल घुमर रहा है वो यहकी आखिर ये गलती है किसकी सरकार ,मंत्रालय या विज्ञापन एजेंसी की ?

Thursday, January 21, 2010

पाकिस्तानी क्यों नहीं ?


" बाप बड़ा भैया सबसे बड़ा रुपैया" ये कहावत चरितार्थ होते दिखी जब आईपीएल इस - के लिए खिलाड़ियों की नीलामी बहस का मुद्दा बनी |खेल पहले व्यवसाय और अब राजनीती के नए रंग में रंग चुकी है | व्यवसाय बने इस खेल में खिलाडियों की नीलामी हुई |पाकिस्तान के एक भी खिलाड़ी फ्रेंचाइज़ी मालिक के द्वारा नहीं चुने गए | सवाल और आरोपों के दौर ने तूल पकड़ ली है| |वाजिब ही है आखिर पिछले बीसी ओवर के चैंपियंस में किसी में ऐसी कूबत नहीं की उन्हें चुना जा सके |या फिर इस खेल ने भी राजनीती का रंग ले लिया है | भारत में इस खेल के आका ललित मोदी ने मीडिया को बताया कि उन खिलाड़ियों ने डेडलाइन मिस किया |पाकिस्तान के 11 खिलाड़ियों में से एक भी इंडियन प्रीमियर लीग की नीलामी में नहीं बिक सका।

पाकिस्तानी क्रिकेटर अफ़रीदी कहते हैं कि यह क्रिकेट टीम का नहीं, बल्कि पाकिस्तान का अपमान है, उन्होंने ऐसा बताया कि इसका अंदेशा उन्हें पहले से था कुछ और दबावों, कारणों, राजनीति की तरफ़। दूसरी ओरइस बात पर भी उन्होने जोर दिया कि ये पूरी तरह से टीमों के मालिकों की पसंद का मसला है कि वो किसे लेंगे और किसे नहीं.
अब बहस यह चल निकली है कि क्या पाकिस्तान का एक भी खिलाड़ी आईपीएल में खेलने के काबिल नहीं। कहीं खेल के लिए खिलाड़ी की क्षमताओं के बजाय उसकी पहचान, राष्ट्रीयता और संप्रदाय भी मानक तो नहीं बन रहे| या सुरक्षा और वीज़ा जैसी चिंताओं ने नीलामी को प्रभावित किया|क्या इस तरह पाकिस्तान में क्रिकेट को और खेल भावना को नुकसान नहीं होगा. कितने गंभीर लगते हैं टीमों के मालिक खेल भावना और खिलाड़ियों के प्रति क्या इन मालिकों के निर्णय खेल भावना को आह़त नहीं करती है |

गीत संगीत औए संस्कृति के माध्यम से हम एक दुसरे को करीब लाने की जुगार में लगे रहते है तो ये खेल क्यों नहीं |क्या ये सवाल हमारे मन में प्रस्फुटित नहीं होने चाहिए | पाकिस्तान को शायद उन कारणों पर आत्मविश्लेषण करना चाहिए जिनकी वजह से भारत और पाकिस्तीन के रिश्तों में तनाव पैदा किया है|आज इन दो देशों के बीच शांति, स्थिरता और समृद्धि को बुरी तरह से प्रभावित किया है|आईपीएल जैसा व्यवसायिक आयोजन भारत सरकार के दायरे में नहीं आता है क्या ये सच वास्तविकता से परे है या सरकार ऐसा बयान देकर अपना पल्ला झाड रहे हैं

क्या खेल भावना पर देशप्रेम हावी हो रहा है या फिर इसे राजनीति का अमली जामा पहनाया जा रहा है ?

Thursday, January 14, 2010

फाइनल फोबिया





"जीते तो ताली हारे तो गाली" भारतीय क्रिकेट टीम के लिए ये सबसे सटीक और सहज पुरस्कार है |इस देश में धर्म माने जाने वाले इस खेल और खेलप्रेमियों का भावनात्मक लगाव कुछ यही बयाँ करता है |वही हुआ जिसका डर था|धोनी की युवा और सशक्त मानी जाने वाली टीम एक बार फिर फाइनल के डर कों नहीं झेल पायी|खेल के आगाज़ ने ही अंजाम का रूख तय कर दिया था |धन्यवाद के पात्र तो रैना और जडेजा है जिन्होंने मुश्किल क्षणों में दवाब में डूबती नैया कों शतकीय साझेदारी से साहिल तक पहुंचाने की कोशिश की |

टेस्ट में नम्बर वन बनने वाली टीम के पांच कागजी शेर ताश के पत्तो की तरह ढेर होते दिखे |आशावादी सोच ने दर्शको के आँखों में आंसू तक ला दिए |"जीत जीत होती है और इसके लिए एक ख़ास जज्बे की जरूरत होती है" ,मैच के ठीक बाद क्रिकेट विशलेषक का गुस्सा (कपिलदेव ,अतुल वासन ) सातवे आसमान पर था |आखिर हो भी क्यों ना ये शायद इस क्रिकेट की इस कैप की अहमियत कों ज्यादे सही तरीके से अंजाम तक लाने की जुगार में लगे रहते थे|
अंगरेजी में एक कहावत है ( Hope is the cause of sorrow )शायद भारतीय दर्शक कों क्रिकेट खिलाडियों ने नए साल का ये बेहतरीन तोहफा दिया हो ! कहते है की जीत के लिए एक ख़ास किस्म की जज्बे की जरूरत होती है ,मिस फील्डिंग ,कैच टपकाना,हाथ उठाकर दुसरे फिल्डर की तरफ इशारा करना की भैया गेंद जा रही है पकड़ लेना |ये सब तो था ही हमारे खिलाडियों में आखिर ये फाइनल जो खेल रहे थे |इतिहास गवाह है कप्तान कोई भी क्यों ना हो हम फाइनल तो हार ही जाते है |विदेशों में सबकी नेत्रित्व क्षमता पर एक सवालिया निशान लग ही जाता है |

श्री लंकाई टीम इस जीत की हकदार सही मायने में थी ,क्योंकि वो भारतीय खिलाड़ियों की अपेक्षा सभी क्षेत्रों में उन पर भारी पर रहे थे |हारने के बाद भी पुरस्कार वितरण समारोह के दौरान युवराज की बतीसी कैमरे के सामने बखूबी दिख रही थी | अरे भाई हो सकता है आपको ये वाक्य थोड़ा दुःख दे सकता है |क्या करू भाई मैं भी तो एक भारतीय दर्शक का ही दिल रखता हूँ | "कारज धीरे होत है काहे होत अधीर" धीरे धीरे ही सही जीत की आस कों हम शब्दों की मजबूती तो जरूर दे सकते है | आशा करते है की हमारी टीम फाइनल फोबिया से शायद उबर पाए |क्रिकेट की भाषा में टफ लक दिस टाइम ,बेटर लक नेक्स्ट टाइम|

Monday, January 11, 2010

हॉकी की हकीकत


पुरस्कार की जगह तिरस्कार ,सम्मान की जगह अपमान ,वेतन की जगह सांत्वना के शब्द ,क्या इन से पेट भर सकता है |ये सारे शब्द हैं भारतीय हॉकी के संचालक के |खिलाडियों ने अपने वेतन की मांग की क्या कर दी, कि देशभावना और खेलभावना पर सवाल खड़े कर दिए गए |मीडिया भी अपनी भूमिका से पीछे नहीं हटी | बागी ,बगावत और ना जाने कितने उपमाओं से इन खिलाडियों को अलंकृत किया | उन्हें फरमान जारी कर दी गयी की जवाब दे ,या फिर नयी टीम का चयन होगा |नैतिकता की बात करने वालो कों शायद ये नहीं पता कि देशभावना सर आँखों पर है लेकिन पेट की भूख तो खिलाड़ियों कों भी मिटानी पड़ती है ना उनकी भी कुछ जिम्मेदारिया है |गावों में एक कहावत प्रचलित है "भूखे भजन ना होए गोपाला " तात्पर्य यह कि भूखे रह कर तो हम भगवान् की भी पूजा नहीं कर सकते |
ये कितने दुःख की बात है देश के राष्ट्रीय खेल और खिलाड़ी आज इस अपमान का हिस्सा बन रहे है |यही नहीं वो तो बस अपने पेट भरने के लिए अपने वेतन की मांग कर रहे है |उन्हें क्रिकेट जैसे आर्थिक खेल के खिलाडियों कों दी जा रही सुविधाओं और सम्मानों से कोई गुरेज नहीं, लेकिन उनका मेहनताना तो कम से कम समय पर मिल जाए ओलम्पिक जैसे खेलों में पदक दिलाने वाले खेलों की आज ये नौबत है कि एक साल पहले किये वादे भी पूरे नहीं किये गए | बात निलंबन तक पहुँच चुकी है ,क्या इनके द्वारा इनकी मांग गलत है ?भारत में फरवरी में जहां हॉकी का विश्व कप होने वाला है वहाँ इन खिलाडियों की तैयारी इनकी व्यथा से स्पष्ट मालूम पड़ती है |

खिलाडियों को दिया गया अल्टीमेटम हकीकत है, या एक बहाना ये तो जल्द ही सामने आ जाएगा |लेकिन राष्ट्रीय खेल की ऐसी स्थिति और खिलाडियों की बगावत ये स्पष्ट करती है कि वेतन और प्रोत्साहन राशि के रूप में उन्हें सिर्फ सांत्वना के शब्द सुनने कों मिलते है|देश खुद कों आर्थिक दृष्टिकोण से विश्व के मानस पटल पर उभरती हुई अर्थवयवस्था बताती है | क्या इनकी मजबूती चन्द खिलाड़ियों के पेट भरने का इंतजाम नहीं कर सकती है |

जहां एक तरफ शाहरुख खान ने इनकी मांग को जायज बताया वही दूसरी तरफ शिवराज सिंह चौहान ने इस टीम के स्पोंशेर्शिप लेने की बात कही |देश का राष्ट्रीय खेल राजनितिक रंगों में डूबता दिख रहा है |ये तो लाजमी है कि बयानबाज़ी और सान्त्वाना से इनके पेट नहीं भर सकते है | वक्त की नजाकत को देखते हुए एक बात तो साफ़ है कि गेंहू के साथ घुन भी पिस जाते है |

Thursday, January 7, 2010

ATTACK ON HUMANITY

The words will have no importance for the agony caused by the attack done by Australian on Indian students. Criticism is not the ointment which will cure this disease. This is unhygienic. We love peace not the violence. What is the solution should be discussed . Due to an unhealthy reason and people are only making the word of criticism to the nature of Australians. Really this is a matter of shame that people are doing such type of activity regarding the issue of race or racial discrimination. This has been continually being done for last year . We can say only one thing that is this is the death of humanity .on one hand you are killing the students and on the other hand inviting by spreading the message with the help of media . people are living the life in fear and agony in the countries where this type of mischievous work is being done or provoked. When we try to make comparison in respect of India Australia will just be the single state of India even we can say that the population of one of state will be more than the entire country.

This is the biggest question that how can we tackle from this problem only the march past of the student throughout the lanes of Australia cannot do anything in favour of the Indian people ; who are living there or in the queue to send their children for further higher studies . We have a different thinking towards the people of other countries who are living in our country for earning their livelihood . Nothing can be gain said against the policy of the govt. Of India who are giving the preference to the all who are coming towards us and trying to forward the hand in the need of a help .people are today forgetting to live in the situation of conjugal hearth and harmony where the peace and the prosperity will come in any format of the life .

There is the limitation of every thing people are loosing the the patience and it may be possible that the result of silence will appear like a burst and the possibility of attack will slowly grow a day and the humanity will be on the verge of brink . slowly and steadily we are finding that the problem is growing from the days of nuke deal and it is not only growing the feet only to the political strength of the two countries but it is now appearing in the community which is bad for the health of both of these countries . the other countries are raising fingers not only on Australia but also on the Indian policy to tackle such problems. This is very candid that people are mow not in condition to watch out condition to see the things as it is happening .

The agony of people will appear in the form of attack and the lasting of relation with such countries who are following the path of racism and doing nothing in favour of humanity regarding this issue. As we are the victim we must think for the betterment for the sake of humanity which is losing the faith amongst the people who think that we can separate ourselves from such activities but the isolation of the human being is only the attack on the morality . we shall have to do something not as the citizen of this country but the preserver of this country . what happened to the humanity is a question mark to the whole human race in a bigger context . we are only in the stage where we have only the option t o do something better for the humanity .The whole humanity is in danger today because the group or the mass has only the power to provoke the thing in better way we can say only one thing that is the govt. Should try to do something better not only because the students of our country is involved but the real matter is lack of job due to the skilled and less money oriented laborious person can be hired who are working for the part time job and living a much sophisticated life than their counterpart .this is a tough task not only for the government but for those parents who wish Australia as the hub of higher studies . how this issue is going to be tackled is a matter of thinking to the mass .

Posted by GAUTAM SACHDEV

Thursday, December 17, 2009

कोपेनहेगेन का " Pain "








प्रत्येक
सजग मानव को आज भली भांती जलवायु परिवर्तन की जानकारी है ।जलवायु परिवर्तन के कटु सत्य को हम झुठला नही सकते । हम सीधे शब्दों मे कह सकते हैं कि हमारी आवश्यकता ही समस्या बनती जा रही है । मुझे बचपन की एक कहावत याद आती है “ आवश्यकता ही आविष्कार की जननी है”। वो दिन दूर नही जब लोगो कि आवश्यक्ता ही नही बचेगी क्योंकि लोग ही जीवित ही नही रहेंगे। क्या ऐसा हो सकता है ? यह प्रश्न आज हर व्यक्ति के मन में कौंध रहा है । विश्व औसत से कहीं अधिक तेजी से हिमालय पिघल रहा है ।यह अगले चालीस साल में पिघल कर समाप्त हो जायेगा ।,यह तो महज एक अनुमान है ।सच इससे भी कहीं ज्यादा दिल दहलाने वाला है ।

पृथ्वी का तापमान बढ़ रहा है , ग्लेशियर पिघल रहे हैं |अंटार्कटिक की बर्फ की चादर की मोटाई कम होती जा रही है आख़िर इसका उपाय क्या है |कोपेनहेगन में चल रहे बैठक की मूल व्यथा यही है |विश्व के तमाम वैज्ञानिक इस बात पर माथा पच्ची करने के लिए एक जुट हुए है |और ये सब हो रहा है हमारी आपकी ज़रूरतों के कारण|समुद्रों का जलस्तर दिन बदिन बढ़ता जा रहा है रहा है ये सच है. वैज्ञानिक जुटे हैं ऐसे तरीक़े खोजने में जिससे ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम किया जा सके |आख़िर इस समस्या से कैसे निजात पाया जाए |

जलवायु
परिवर्तन को लेकर कोपनहेगन में चल रहे अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में ऊंट किसी करवट बैठता नही दिख रहा है | विश्व स्तर पर कोई कारगर सहमति बनाने की कोशिश शायद नाकाम होती दिख रही है |विकसित और विकासशील देशो के बीच होने वाले इस समझौते में सकाराक्त्मक परिणाम की अपेक्षा शायद ही सम्भव दिख रही है | विकसित देश अपनी शक्ति का फायदा उठाकर ये कह रहे है की हम विकासशील देशो पर नजर रखेंगे | अरे भाई आप कौन होते है हमारे ऊपर नजर रखने वाले | एक बार फिर जहाँ अमेरिका की दादागिरी देखने को सामने आ रही है |वहीँ भारत अपनी वायदे पर खड़ा उतरने में पीछे हटता नही दिखा रहा है | भारत का रुख इस मुद्दे पर सकारात्मक है और भारत एक भेदभाव से परे, व्यापक और सभी के हित में होने वाले समझौते के लिए प्रतिबद्ध है.|

आज से दो साल पहले ओबामा के भाषण की शुरूआत “The planet is in peril” जैसे वाक्यों से हुआ करती थी ।लेकिन वर्तमान समय में वो भी इस मुद्दे पर बुश के नक्शे कदम पर ही चलते दिख रहे हैं विश्व स्तर पर आज ओबामा की कथनी और करनी में दिखे विरोधाभाष को उन्हें फिर से भाषण के जरिये ही सही लेकिन गलत साबित करना होगा ।वो विश्व के राष्ट्रपति नहीं है, इस बात को उन्हें समझना होगा। सबसे पहले वो अपने देश का प्रतिनिधितव करते हुए कार्बन उत्सर्जन में कमी की बात पर सहमति जत्तायें। विश्व के उद्यमी वर्ग इस जुगात मे हैं कि उन पर ज्यादे पाबन्दियां ना लगे ।

वैश्वीकरण के इस दौर में कोई भी देश क्यों ना हो वो किसी से पीछे नही रहना चाहता है| विकसित और विकास शील देश के बीच बढ़ती आर्थिक खाई शायद विश्व के हित में ना हो । जलवायु परिवर्तन का बुरा असर दुनिया के निर्धन देशो पर सबसे अधिक पड़ेगा |करोडो लोगो को पानी नही मिलेगा फसले नष्ट हो जायेगी और हम मूक बनकर देखते रहेंगे क्योंकि हमे विकास के पथ पर अग्रसर होना है |विकसित देशों के और विकसित होने का यह सपना शायद विश्व के गरीब देशों के लिए काल साबित होगा |आज भारत जैसे देश में लोगो को पानी की समस्या से दो चार होना पड़ रहा है तो पचास साल बाद क्या स्थिति होगी इसका अंदाजा अभी से लगाना और फिर भी उस पर अम्ल नही करना कौन सी होशियारी है पता ही नही चलता है |

क्योटो प्रोटोकॉल पर हस्ताक्षर के मसौदे ,कार्बन उत्सर्जन में कमी ,ये महज एक औपचारिकता है। जो जल्द ही पूरी हो जायेगी | जलवायु परोवर्तन के कटु सत्य से हम अपना मुह नही फेर सकते है |देश और विश्व को बचाने के लिए सबों को एक जुट होना ही पड़ेगा |विकसित देशों और विकासशील देशों के बीच ग्रीन हाऊस गैसों में कटौती के बारे में मतभेद हैं| बीस प्रतिशत से कम जनसंख्या वाले विकसित देश इस प्रदूषण में 50 प्रतिशत से ज़्यादा योगदान दे रहे हैं. अब भारत चीन पर गैसों की कटौती का दबाव क्या दुनिया की ग़रीब जनता को ग़रीब रखने और पश्चिमी देशों का दबदबा बनाए रखने का ढकोंसला है। हालांकि सम्मेलन में कुछ विकसित देशों ने जंगलों को बचाने के लिए 3.5 अरब डॉलर देने का एलान किया है. ब्रिटेन, अमरीका, ऑस्ट्रेलिया, जापान, नार्वे और फ़्रांस ने अगले तीन सालों में ये रकम नगद देने का वादा किया है|
माना जा रहा है कि दुनिया में हो रहे कार्बन उत्सर्जन का बीस प्रतिशत कटते हुए जंगलों की वजह से है।उम्मीद की जा रही है कि ये पैसा विकासशील देशों में जंगलों की कटाई को कम करने, रोकने और अंतत: नए पेड़ लगाने की प्रक्रिया को शुरू करने में सहायक होगा. पर्यावरण परिवर्तन के कटु सत्य से हम अपना मुह नही मोड़ सकते है आज देश ही नही वरन विश्व के सामने एक ऐसी समस्या आ खड़ी हुई है जिसका निदान निकट भविष्य में दुरूह दिख रहा है |
फिज़्ज़ी हो या वेटिकेन सिटी विश्व का कोई भी देश नही बच पायेगा |मानवता का समूल नाश हो जाएगा | प्रकृति पर विजय पताका फहराने वाली ,सोच रखने वाली इस मनुष्य जात की सोच में अब कौन सा उत्पात मच गया है की इन्हे विश्वस्तरीय बैठक की बात दिखने लगी |सुख और समिर्धियो को प्राथमिकता देने वाला ये मनुष्य शायद यह नही सोच रहा है की उसके भोग विलासिता वाली इस जिन्दगी के लिए ये पृथ्वी ही नही बचेगी |ये पूरे विश्व को एक चेतावनी है की वो अभी भी सचेत हो जाए अन्यथा सृष्टि के इस अजीब सी संरचना का विनाश देखने को तैयार रहें |पर्यावरण परिवर्तन एक कटु सत्य है जिससे आंखे चुराना शायद मानवता के हित में नही होगा |

विश्व के सामने आज एक ऐसा परिदृश्य बनता जा रहा है जो कल का डर सामने लाकर आइने में उसका चेहरा दिखा रहा है |जिस आईने से हम अपना मुह नही फेर सकते है जो डरावना भी उतना ही है |कल्पना मात्र से डर लगता है की विश्व बिना जल के और पृथ्वी बिना मनुष्य के | आवश्यकता आविष्कार की जननी है और ये आविष्कार ही मानवता का दुश्मन बनेगी |
आप क्या सोच रहे हैं ?

Tuesday, December 8, 2009

बाबरी आयोग का वियोग


बचपन में एक कहावत पढी थी "इतिहास हमेशा अपना सुराग छोडता है।" एक ऐसा ही इतिहास है दिसंबर 6 ,1992 । “बाबरी विध्वंश ” जिसकी परसों वर्षी मनायी गयी । भारतीय राजनीति में एक ऐसा काला दिन जो अपने आप में आज भी सवाल ही है ।सत्रह साल ,अडतालीस अवधि विस्तार, आठ करोड़ का खर्च और रिपोर्ट तेरह पन्नो का ऐ।टी.आर |लिब्राहन आयोग कि रिपोर्ट सत्रह साल बाद देश के राजनीतिक अखाडॆ मे नया तान्ड्व करने की पूरी तैयारी के साथ शीत कालीन सत्र मे पेश किया गया। इतने लम्बे इन्त्ज़ार का परिणाम सबके सामने है। सबसे ज्यादा तो इस देश की आम जनता महरूम होती है। वो हिन्दू हो या मुसलमान । धर्म के नाम पर फ़ैलाये गये ऐसे उन्माद किसी सकारात्मक सोच को कतई जन्म नहीं दे सकती। ये सिर्फ़ उस इमारत कि नीव को मजबूत करती है जिस पर सिर्फ़ साम्प्रदायिक दंगो का महल बनाया जा सकता है और जिसकी दीवारों को हिन्दू या मुसलमान की लाशों से मजबूती प्रदान की जाती है।

आयोग शब्द ही जैसे इस देश की जनता के बीच अब डर का माहौल पैदा करती है। लिब्राहन आयोग की रिपोर्ट सांसद के पटल पर रखी नही गयी कि , उसके लीक होने की जांच के लिये एक आयोग कि स्थापना कर दी गयी। बाबरी मस्जिद के विध्वंश की जांच कर रही इस आयोग ने सत्रह साल के एक लम्बे अन्तराल के बाद देश के राजनीतिक माहौल में एक नयी सरगरमी पैदा कर दी है । आज सबसे बडा सवाल यह है कि दोशी है कौन ? जवाब आयोग कि रिपोर्ट से मिलता है कोई नहीं। लोकतांत्रिक आयोग की रिपोर्ट ने भाजपा के तमाम बड़े नेता से लेकर कार्यकर्ताओ तक करीब 68 लोगो को बाबरी मस्जिद ध्वस्त करने का दोषी पाते हुए उसे छदम उदारवादी , छदम राष्ट्रवादी ,और छदम लोकतंत्रवादी की संज्ञा दी है | वर्णनात्मक सूची में कई बडॆ नाम शामिल हैं । आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, गोविन्दाचार्य, ना जाने कितने | हां एक बात और वाजपेयी जी का नाम सातवें स्थान पर इंगित है ।भारतीय जनता पार्टी के जिन लोगो के नाम सामने आये हैं, उनमे से उमा भारती टी. वी. चैनलों पर इसकी नैतिक जिम्मेदारी लेती देखी जाती है। जो दावे के साथ कह्ती है कि मुझे अगर फ़ासीं की भी सजा हो तो मुझे कोइ गम नहीं होगा । लेकिन उनका ये अदम्य साहस न्यायालय में कहां गुम हो जाता है।जब इसकी सुनवाई हो रही थी |

लिब्राहन आयोग कि रिपोर्ट एक ऐसा सच ले कर सामने आयी है। जिससे साफ़ पता चलता है कि देश की दोनो राजनीतिक पार्टीयों ने इस मुद्दे का समय समय पर बखूबी राजनीतिक फ़ायदा लिया है। हम ऐसा कह सकते है कि हमारे देश की जनता दयनीय स्थिति में है | उसके एक तरफ़ कुआं है तो दूसरी तरफ़ खाई | आज़ादी के बासठ सालो में जनता को या तो कांग्रेस की सरकार को बर्दाश्त करना पडा या फिर भातीय जनता पार्टी के नेत्रित्व वाली सरकार को | इस रिपोर्ट ने स्पष्ट तौर पर उस समय के प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव को दोषी साबित किया है। जिन्होने पूरी जानकारी होने के बावजूद एक ठोस कदम नहीं उठाया था । अन्य्था इस विध्वन्श को रोका जा सकता था। लिब्राहन आयोग के इस दोषारोपण में एक नाम आम लोगों को हजम नही हो रही है वो है “अटल बिहारी वाजपेयी” । जब आडवाणी जी की रथ यात्रा की बात चल रही थी तो उन्होने गोविन्दाचार्य को कहा था कि “मैं ऐसी नौटंकी में नही जाता ” इससे बिल्कुल साफ़ होता है कि वो ऐसी किसी भी राजनीतिक प्रचार प्रसार के खिलाफ़ थे। कल सलमान खुर्शीद लोक सभा में ये कह्ते हुए पाए गये कि गलती से उनका नाम चला गया। बडा ही हास्यासपद लगता है कि आयोग अपनी जांच और रिपोर्ट पेशी मे ऐसी गलती करता है।

इस रिपोर्ट ने राजनितिक पार्टियों के चेहरे से एक ऐसा नकाब हटाया है |जिससे भाजपा जैसी लोकतांत्रिक पार्टी का एक ऐसा चेहरा सामने आ गया है ,जिसने लोकतांत्रिक संगठन के रूप में दिन -बदिन अपनी विश्वासनियता कम की | राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ,विश्व हिंदू परिषद ,बजरंग दल पर अधिकाधिक निर्भरता और शिवसेना जैसी घोर साम्प्रदायिक और क्षेत्रीवादी संगठनों से दोस्ती के कारण उसका संकीर्ण राष्ट्रवादी ,साम्प्रदायिक चरित्र ही उतरोतर सामने आया है |वही दूसरी तरफ़ कॉग्रेस की सरकार भी इसके लिए कम जिम्मेदार नही है |

लिब्राहन आयोग कि इस रिपोर्ट ने इन दोनों पार्टियों कि ऐसी पोल खोल दी है जिसमे ये अपने राजनितिक स्वार्थ को सर्वोपरि मानकर देश कि जनता को पिछले सत्रह सालो से गुमराह करते आए है |एक बात तो बिल्कुल स्पष्ट है कि देश कि भोली भाली जनता को हर बार ठगा जाता है|

सही मायने में मनु ,कौटिल्य और चाणक्य के इस देश में राजनीति शब्द को कलंकित किया गया है|जिसकी आड़ में निजी स्वार्थो कि एक ऐसी रोटी पकाई जाती है जिसका स्वाद समयानुसार देश कि दोनों बड़ी पार्टियाँ चखती रही है |एक बात तो बिल्कुल स्पष्ट है कि देश कि राजनीति अब मात्र कुर्सियों का खेल बन कर रह गई है |लोकहित के लिए जरूरत है एक क्रान्ति कि हाशिये पर स्थित समाजवादिओं को समाजवादी लोकतंत्र की एक पार्टी बनाकर ठोस विकल्प प्रस्तुत करने कि कोशिश करनी चाहिए|
|लिब्राहन आयोग का वियोग एक नजरिये से दोनों पार्टियों के हित में है |

Monday, November 30, 2009

मीडिया का देशप्रेम ?

यह २६ नवम्बर की शाम की बात है जब मीडिया का देशप्रेम छलकता हुआ दिख पड़ा |वह एक उद्दास करने वाली शाम थी |जब देश के तमाम टी वी चैनल अपने - अपने तरीके से देशप्रेम की थाली में जज्बातों की मिठाइयाँ पड़ोस रहे थे |सब मुंबई हमले की बरषी जो मना रहे थे |तर्कवीर कुछ निंदा कुछ आलोचना ,समालोचना और प्रशंसा के माध्यम से देशभक्ति में सरावोर दिख रहे थे |तर्क और टी. आर .पी के इस घमासान में यह सच दम तोड़ चुका था की हम आज भी एक राष्ट्र के रूप में आज भी ख़ुद को उतना ही असुरक्षित महसूस कर रहे है |
हादसे की बरषी मनाने में हम लोगों ने जो कुछ किया वो शायद कम ही था |तभी तो हमे यह भी देखने को मिला की जहाँ माँ -बाप अपने बेटे को आतंकवादी हमलो में शहीद होने पर गौरवान्वित होते है वही संदीप उन्नीकृष्णन के माता पिता ने कहा की नही ,मुझे तो गर्व है की वह अपनी कर्तव्य परायणता के कारण शहीद हुआ लेकिन किसके लिए ? और क्यों ? मीडिया का देशप्रेम शायद पूंजीपतियों को ध्यान में रखकर ही मनाया जा रह था,पता नही क्यो मुझे तो लग रहा था की जो आम आदमी मरे थे क्या वो इस देश के नही थे |उनकी सुध लेने वाला तो कोई नही दिखा |१३ दिसम्बर भी तो बहुत ही नजदीक है देखने वाली बात होगी की की ये उन शहीदों की देशभक्ति का देशप्रेम कैसे चित्रित करते है |जिन्होंने दिल्ली के दिल पर हुए हमले में अपनी जान गवाई थी |
मै तो एक बात स्पष्ट तौर पे कहना चाहूँगा की मीडिया अगर अपना देश प्रेम ही दिखाना ही चाहती है ,तो बेमकसद जी रही उन जिंदगियों के लिए कुछ गुहार सरकार से लगाये जिन्होंने अपने अकेले संतान को देश के लिए नयोछ्वार कर दिया और आज भी सांत्वना और संवेदनाओ की रकम की आस में है |देशभक्तों को सिर्फ़ याद कर लने से हम शायद देशभक्त नही हो सकते है |जरूरत है एक ऐसे क्रान्ति की जिसमे देश के जागरूक नागरिक भी अपनी भागीदारी दिखायें और सिर्फ़ सरकार को दोषी ठहराने के वजाए कुछ नई सोच और परिवर्तन के बारे में सोचे |
वो देश कोई भी क्यों हो नौजवानों को कन्धा देकर महान बनने का सपना नही देख सकती है |बल्कि जरूरत है की उन कंधो को इतना मजबूत किया जाए की उन पर चढ़कर आगे बढ़ने का प्रयत्न किया जाए |शब्द ,तर्क और वाक्यों के देशप्रेम से सिर्फ़ उनकी बलि चढ़ाई जा सकती है| वो बीते कल के भगत सिंह हो या फिर आज के संदीप उन्नीकृष्णन हम इनकी शहादत को सही मायने में भुला तो नही सकते लेकिन इनकी शहादत से जरूरत है कुछ सिखने की जिसपर अम्ल किया जा सके और इंसानियत की खातिर देश के ऐसे शहीद को राजनितिक तिरंगों में लपेटकर उनका राजकीय सम्मान के साथ अन्तिम संस्कार नही किया जाए|

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