वो शाम पुरानी लगती है वो जाम पुरानी लगती है |
अफसानों के आँगन में अब हर काम पुरानी लगती है ||
जिन्दा हूं और रोज जीने की कोशिश करता हूं।
बद्लते जमाने और इश्क के मर्म में मरने से भी अब डरता हूँ ||
इश्क की आहट सुन अब क्यों जिन्दा ही मर जाता है |
अब जाकर जाना है कि दिल की दुनिया में प्यार भी एक समझौता है ||
अरमानों के इस गुलशन में यादें ही आँखें भिंगोता है |
जब सारा आलम सोता है तो ये पगला क्यों रोता है ||
5 comments:
bahut accha likha hai aapne...
pahle ki bhi ghazle acchin hai...
last stanza is vry nice...
bahut badiya hai...
last line is vry nice...
प्रिय आपके भाव बहुत ही प्यारे और सुन्दर हैं पर हिन्दी भाषा में सुधार की बहुत बहुत जरूरत है।
ye sher pasand aayaa...
अरमानों के इस गुलशन में यादें ही आँखें भिंगोता है |
जब सारा आलम सोता है तो ये पगला क्यों रोता है
prayaas badhiyaa hai... shabdon ko thodaa aur kasne kee zururat hai... matlab shabd kam kharch karen... baat pooree kahen...
likhte rahen...
विचार को और गहराई और भाषा को कसाई की जरुरत है....
शब्दों को पेच की तरह कसना होगा. तब जा कर आपकी बात सुनने वाले या पढने वाले तक ठीक-ठीक पहूंचेगा.
लिखते रहिए.........
भाव सुन्दर हैं.
Post a Comment