Tuesday, March 9, 2010

अल्फाजों का आशियाना



चाँद की चाँदनी में भी मेरा साथ बेगाना लगता है |
पहले मेरी आँखें मरहम और अब छुअन भी अनजाना लगता है ||

साहिल से दूर समंदर सा पीर अपना आशियाना लगता है |
प्यार की राहों में एक कंकड़ भी परवाना लगता है |

जिस हँसी कों बेताबी से देखा करती थी वो |
अब वही खुशी क्यों गम का फ़साना लगता है ||

शिकवा है मुझसे खुशी ना दे पायी पूरी |
पता है शायद उन्हें खुश होने में मुझे एक ज़माना लगता है ||

अल्फाजों और जुमलों में क्या बयाँ करूं|
अब इन बिखरे शब्दों कों पिरोना भी काम पुराना लगता है ||

Tuesday, February 2, 2010

खुद कों बताऊँ कैसे !


तुम्हारी आंखो के साहिल से दूर कहीं अपना आशियाना बनाऊ कैसे।

तिनकों के घरौंदे में अब रह्कर खुद को समझाऊ कैसे ॥

आरजू की तपिश में पिघलकर भी तेरा नाम ही अच्छा लगता है ।

विरह की आग मे जलकर खाक बन जाना अपना नसीब लगता है ॥

अपने वजूद को खोकर भी खुद को तेरी लौ में जलाउं कैसे।

खाली हाथ आयी इस शाम में तेरी यादों को भुलाउं कैसे ।।

वक्त के हसी सितम ने अब मेरा दामन थाम लिया है ।

इंतजार की एक एक घडी ने मेरे प्यार को नया आयाम दिया है॥

Thursday, January 28, 2010

सानिया की समझ !


भारत की टेनिस स्टार सानिया मिर्ज़ा की सोहराब मिर्ज़ा से सगाई टूट गई है|टेनिस की दुनिया की एक खूबसूरत बाला ने इसे खुद का फैसला बताया है |शायद सानिया समझ गयी ! टेनिस की सनसनी कही जाने वाली सानिया का यह, या तो परिपक्व समझ है या फिर खेल से उनका प्रेम यह तो अभी भविष्य के गर्भ में है लेकिन एक बात तो स्पष्ट है की इन खिलाड़ियों कों आदर्श मानने वाले भारतीय नवोदित युवा खिलाडियों के लिए एक आस फिर जग गयी है | क्या सानिया फिर से कोर्ट पर मेहनत करते हुए ज्यादे और जिन्दगी कों सहजता से लेते हुए कम देखी जायेंगी ?

कुछ दिनों पहले सानिया मिर्जा़ की ओर से बयान आया था कि वो शादी के बाद टेनिस से संन्यास ले लेंगी| सानिया के इस बयान ने उनके चहेतों का दिल तोड़ दिया था |लेकिन इसे किस्मत का खेल कहें या देश कों टेनिस की दुनिया में कुछ और सम्मान दिलाने का मौक़ा |एक टेनिस प्रेमी के रूप में देश के तमाम लोग उन्हें खेलते हुए देखना चाहेंगे|अंतरराष्ट्रीय रैंकिंग में 34 वें नंबर तक पहुँचने वाली सानिया का करियर चोटों से जरूर प्रभावित रहा है लेकिन वो शायद इसे बेहतर कर सकती है |

साल २०१० की शुरूआत सानिया के लिए ज्यादे अच्छी नहीं कही जा सकती है | उनके सगाई के बाद के बयान से सगाई टूटने तक हर एक टेनिस प्रेमी के मन में एक सवाल उभर रहा है की क्या वो फिर से उसी रंग में दिखेंगी जिसके लिए उन्हें इतनी सोहरत मिली थी |क्या उनका कैरियर ढलते सूरज की तरह तो नहीं जो पश्चिम दिशा की और चल चुका है ? अब हम सब कों इस बात का इंतज़ार है की क्या सानिया की समझ उनके लिए कुछ अच्छे पल लाएगा ?
वक्त की नजाकत कों दखते हुए तो बस हम यही कह सकते है की खुदा उनकी जिन्दगी में समिर्धी और खुशहाली दे |उनका निजी जीवन खुशियों से भर जाए , और वो देश कों टेनिस के रैकेट के माध्यम से चन्द और खुशियाँ दे पाएं आज जिसे वो पारस्परिक समझ कह रही है क्या ये उनकी जिन्दगी में एक खिलाड़ी के रूप में उन्हें फायदा देगा या नुकसान ये तो आने वाला समय ही बताएगा |

Tuesday, January 26, 2010

गणतंत्र पर शाब्दिक हमला


देश में कल गणतंत्र की धूम दिखी इसी बीच एक और बात जो प्रचुर मात्रा में देखने कों मिली वो थी कागजी मीडियाके महारथी का देश के नाम शाब्दिक पटुता का एक नया अंदाज़ | ये कोई नयी बात नहीं थी |शब्दों के कुशलकारीगर गणतंत्र पर देश की खामियों कों गिनाने में लगे हुए थे |सुबह से लेकर शाम तक मैं ने करीब दस आलेखऔर कुछेक ब्लॉग पढ़े सबके सब शाब्दिक चिंता में डूबे दिखे वजह देश की आजादी के लम्बे अरसे बाद भी देश केस्थिति का चरित्र चित्रण |मेरी समझ में एक बात बिलकुल नहीं आयी ये आखिर कलम के जादूगर कहना औरकरना क्या चाहते है |
क्या देश की खामियों कों गिनाकर कोई क्रांती लायी जा सकती है जिसकी नीव बदलाव के साथ रखीजायेगी |क्यागणतंत्र पर राजपथ की परेड कों फिजूलखर्ची कहने से गरीबों का पेट भर जाएगा |कलम के बादशाहों कों शायद येपता नहीं की उनके शब्द में अब वो ताकत नहीं है, जो गांधी, दिनकर और भगत की लेखनी में हुआ करते थेआखिर ये अपनी शाब्दिक पटुता कों काली स्याही के रंग में रंग कर साबित क्या करना चाहते है |चन्द पैसों केलिए कलम चलाने वाले ये महानुभाव लेखनी से ही देश की गरीबी ,भूखमरी और नक्सलवाद जैसी समस्याओं कासमूल नाश करने का बीड़ा उठा रखा है |

ये सवाल उन प्रबुद्ध जनों से नहीं है जो देश की उपलब्धियों कों धता बताते है और शब्दों में ही सुधार की गुंजाइशदेखते है |काश ऐसा हो पाता ! सही मायने में ये लोकतंत्र से ही एक सवाल है |जहाँ गणतंत्र और स्वतंत्र होने के भीदिवस कों मनाया जाता है |शाब्दिक प्रबुधता से देश का कल्याण नहीं हो सकता है |इस देश में लिखने वालो कीकोई कमी नहीं है जो अपनी शाब्दिक पटुता से देश हित की कागजी बातें करते करते खुद कों ख़तम कर लेते हैलेकिन सुधार के नाम पर बासठ सालो में तो कुछ भी देखने कों नहीं मिलता |ये सवाल सिर्फ सिर्फ प्रबुद्ध जनों केमन मष्तिष्क में ही नहीं उभरा है , मैं और मेरे जैसे पत्रकारिता के कुछ मेरे दोस्त भी इस दौर में शामिल है |शब्दका अस्तित्व ही क्या है .....क्या आग कहने से आग जलने लगती है , क्या पानी कहने से प्यास बुझ जाती है |नहींबिलकुल नहीं |
सब अपना भड़ास सिर्फ शब्दों में निकालकर शांत हो जायेंगे फिर अगले साल गणतंत्र आयेगा और खुद कों आमआदमी के लेबल से चिपकाकर ये अगली बार फिर लिखेंगे जिनके इन्हें चन्द पैसे मिल जायेंगे | शब्द देश काकल्याण करते तो ये कलम के जादूगर देश और देश की आम जनता के लिए सरकार का ध्यान आकृष्ट करवा पातेदेश के गणतंत्र और स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या और दिवस पर ऐसे ही आलेख लिखे जायंगे ,हम जैसे मूकपाठक उसे पढ़कर मौन रहने का संकल्प लेंगे और अगली बार फिर देशहित और समाज के समग्र विकास कीपरिकल्पनाओं में खुद कों शाब्दिक शेर साबित करेंगे |
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कैसे समझायें उन्हें ?



उनकी एक बात पर पर मैं हैरां हो जाता हूं।

मेरे हाल पर जब उन्हें रोता हुआ पाता हूं॥


कैसे समझाउं उन्हें,कि मैं उनसे बफ़ा करता हूं।

आखें हो जाती है नम जब दर्द ए गम बयां करता हूं॥


रूह कांप उठती है जब वो मेरी बफ़ा को कोई नाम नहीं देती।

जीवन के उलझन में खुद की तन्हाई कोई मुकाम नहीं देती||


काश वो शाम फिर आती , जब मैं उन्हें मना पाता|

उन्हें अपनी आगोश में लेता और इस बेगानी दुनिया से दूर चला जाता ||

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