Monday, December 14, 2009

यह परिदृश्य?



खौफनाक है यह परिदृश्य ,क्या होगा विश्व का भविष्य |
कौन जियेगा ,कौन मरेगा मानवता का कैसा रिस्क
मानव ख़ुद को मार रहा है हम कैसे इसे बचायेंगे||

लोगों की आवयश्कता अब बन रही समस्या|
ग्रह ,नक्षत्र और तारे क्या यही बच पायेंगे
मानव ख़ुद को मार रहा है हम कैसे इसे बचायेंगे||

कार्बन हो या मोनो कार्बन कैसे इसे घटाएंगे|
परिवर्तन एक कटु सत्य है कैसे इसे झुठ्लायेंगे
मानव ख़ुद को मार रहा है हम कैसे इसे बचायेंगे||

फिज्जी हो या वेटिकन सिटी एक लोग भी ना बच पायेंगे |
मानव ख़ुद को मार रहा है हम कैसे इसे बचायेंगे||

Friday, December 11, 2009

एक ख्वाब ?








वो जिन्दगी ही क्या, जिसका कोई वजूद ना हो।

वो आशियाना ही क्या, जो आंधियों मे मह्फ़ूज़ ना हो॥

गम के आंधियों में, बिखर जाते हैं रेत के घरौंदे।
वो जाम ही क्या जिसके पीने में बदनाम पैमाना ना हो॥

हंगामा वाजिब है ,लेकिन थोडी सी पी लेने दो ।
ए मौत तुम कल आना ,आज की शाम जी लेने दो॥

चौंककर नींद से यकायक, उठकर मैं बैठ जाता हूं।
जब ख्वाबों में कभी, खुद को इतना बेचैन पाता हूं॥

Tuesday, December 8, 2009

बाबरी आयोग का वियोग


बचपन में एक कहावत पढी थी "इतिहास हमेशा अपना सुराग छोडता है।" एक ऐसा ही इतिहास है दिसंबर 6 ,1992 । “बाबरी विध्वंश ” जिसकी परसों वर्षी मनायी गयी । भारतीय राजनीति में एक ऐसा काला दिन जो अपने आप में आज भी सवाल ही है ।सत्रह साल ,अडतालीस अवधि विस्तार, आठ करोड़ का खर्च और रिपोर्ट तेरह पन्नो का ऐ।टी.आर |लिब्राहन आयोग कि रिपोर्ट सत्रह साल बाद देश के राजनीतिक अखाडॆ मे नया तान्ड्व करने की पूरी तैयारी के साथ शीत कालीन सत्र मे पेश किया गया। इतने लम्बे इन्त्ज़ार का परिणाम सबके सामने है। सबसे ज्यादा तो इस देश की आम जनता महरूम होती है। वो हिन्दू हो या मुसलमान । धर्म के नाम पर फ़ैलाये गये ऐसे उन्माद किसी सकारात्मक सोच को कतई जन्म नहीं दे सकती। ये सिर्फ़ उस इमारत कि नीव को मजबूत करती है जिस पर सिर्फ़ साम्प्रदायिक दंगो का महल बनाया जा सकता है और जिसकी दीवारों को हिन्दू या मुसलमान की लाशों से मजबूती प्रदान की जाती है।

आयोग शब्द ही जैसे इस देश की जनता के बीच अब डर का माहौल पैदा करती है। लिब्राहन आयोग की रिपोर्ट सांसद के पटल पर रखी नही गयी कि , उसके लीक होने की जांच के लिये एक आयोग कि स्थापना कर दी गयी। बाबरी मस्जिद के विध्वंश की जांच कर रही इस आयोग ने सत्रह साल के एक लम्बे अन्तराल के बाद देश के राजनीतिक माहौल में एक नयी सरगरमी पैदा कर दी है । आज सबसे बडा सवाल यह है कि दोशी है कौन ? जवाब आयोग कि रिपोर्ट से मिलता है कोई नहीं। लोकतांत्रिक आयोग की रिपोर्ट ने भाजपा के तमाम बड़े नेता से लेकर कार्यकर्ताओ तक करीब 68 लोगो को बाबरी मस्जिद ध्वस्त करने का दोषी पाते हुए उसे छदम उदारवादी , छदम राष्ट्रवादी ,और छदम लोकतंत्रवादी की संज्ञा दी है | वर्णनात्मक सूची में कई बडॆ नाम शामिल हैं । आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, गोविन्दाचार्य, ना जाने कितने | हां एक बात और वाजपेयी जी का नाम सातवें स्थान पर इंगित है ।भारतीय जनता पार्टी के जिन लोगो के नाम सामने आये हैं, उनमे से उमा भारती टी. वी. चैनलों पर इसकी नैतिक जिम्मेदारी लेती देखी जाती है। जो दावे के साथ कह्ती है कि मुझे अगर फ़ासीं की भी सजा हो तो मुझे कोइ गम नहीं होगा । लेकिन उनका ये अदम्य साहस न्यायालय में कहां गुम हो जाता है।जब इसकी सुनवाई हो रही थी |

लिब्राहन आयोग कि रिपोर्ट एक ऐसा सच ले कर सामने आयी है। जिससे साफ़ पता चलता है कि देश की दोनो राजनीतिक पार्टीयों ने इस मुद्दे का समय समय पर बखूबी राजनीतिक फ़ायदा लिया है। हम ऐसा कह सकते है कि हमारे देश की जनता दयनीय स्थिति में है | उसके एक तरफ़ कुआं है तो दूसरी तरफ़ खाई | आज़ादी के बासठ सालो में जनता को या तो कांग्रेस की सरकार को बर्दाश्त करना पडा या फिर भातीय जनता पार्टी के नेत्रित्व वाली सरकार को | इस रिपोर्ट ने स्पष्ट तौर पर उस समय के प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव को दोषी साबित किया है। जिन्होने पूरी जानकारी होने के बावजूद एक ठोस कदम नहीं उठाया था । अन्य्था इस विध्वन्श को रोका जा सकता था। लिब्राहन आयोग के इस दोषारोपण में एक नाम आम लोगों को हजम नही हो रही है वो है “अटल बिहारी वाजपेयी” । जब आडवाणी जी की रथ यात्रा की बात चल रही थी तो उन्होने गोविन्दाचार्य को कहा था कि “मैं ऐसी नौटंकी में नही जाता ” इससे बिल्कुल साफ़ होता है कि वो ऐसी किसी भी राजनीतिक प्रचार प्रसार के खिलाफ़ थे। कल सलमान खुर्शीद लोक सभा में ये कह्ते हुए पाए गये कि गलती से उनका नाम चला गया। बडा ही हास्यासपद लगता है कि आयोग अपनी जांच और रिपोर्ट पेशी मे ऐसी गलती करता है।

इस रिपोर्ट ने राजनितिक पार्टियों के चेहरे से एक ऐसा नकाब हटाया है |जिससे भाजपा जैसी लोकतांत्रिक पार्टी का एक ऐसा चेहरा सामने आ गया है ,जिसने लोकतांत्रिक संगठन के रूप में दिन -बदिन अपनी विश्वासनियता कम की | राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ,विश्व हिंदू परिषद ,बजरंग दल पर अधिकाधिक निर्भरता और शिवसेना जैसी घोर साम्प्रदायिक और क्षेत्रीवादी संगठनों से दोस्ती के कारण उसका संकीर्ण राष्ट्रवादी ,साम्प्रदायिक चरित्र ही उतरोतर सामने आया है |वही दूसरी तरफ़ कॉग्रेस की सरकार भी इसके लिए कम जिम्मेदार नही है |

लिब्राहन आयोग कि इस रिपोर्ट ने इन दोनों पार्टियों कि ऐसी पोल खोल दी है जिसमे ये अपने राजनितिक स्वार्थ को सर्वोपरि मानकर देश कि जनता को पिछले सत्रह सालो से गुमराह करते आए है |एक बात तो बिल्कुल स्पष्ट है कि देश कि भोली भाली जनता को हर बार ठगा जाता है|

सही मायने में मनु ,कौटिल्य और चाणक्य के इस देश में राजनीति शब्द को कलंकित किया गया है|जिसकी आड़ में निजी स्वार्थो कि एक ऐसी रोटी पकाई जाती है जिसका स्वाद समयानुसार देश कि दोनों बड़ी पार्टियाँ चखती रही है |एक बात तो बिल्कुल स्पष्ट है कि देश कि राजनीति अब मात्र कुर्सियों का खेल बन कर रह गई है |लोकहित के लिए जरूरत है एक क्रान्ति कि हाशिये पर स्थित समाजवादिओं को समाजवादी लोकतंत्र की एक पार्टी बनाकर ठोस विकल्प प्रस्तुत करने कि कोशिश करनी चाहिए|
|लिब्राहन आयोग का वियोग एक नजरिये से दोनों पार्टियों के हित में है |

Sunday, December 6, 2009

विरह


दिल की फ़रयाद सिर्फ़ इतनी है, कि मरने से पहले उन्हे देख लें।,
विरह कि तपिश मे खुद जलें,और उनकी यादों को लम्हों मे समेट लें॥

वो मुझे शायद भुला दें, लेकिन उनकी यादें ही काफ़ी है मेरे जीने के लिये।
उनके आने कि आस भी शायद कम पर जाये जिन्दगी को आजमाने के लिये ॥

सावन की बरसात में उनका भींगना अब गम का घरौंदा बनाती है ।
अब तो धूप में बनी अपनी परछाई भी मुझे खूब डराती है ॥

मन्जिलें क्या है, रास्ता क्या है दूर तलक वीराना है ।
उनकी याद में मेरे अल्फ़ाजों का ये छॊटा सा फ़साना है ॥

Monday, November 30, 2009

मीडिया का देशप्रेम ?

यह २६ नवम्बर की शाम की बात है जब मीडिया का देशप्रेम छलकता हुआ दिख पड़ा |वह एक उद्दास करने वाली शाम थी |जब देश के तमाम टी वी चैनल अपने - अपने तरीके से देशप्रेम की थाली में जज्बातों की मिठाइयाँ पड़ोस रहे थे |सब मुंबई हमले की बरषी जो मना रहे थे |तर्कवीर कुछ निंदा कुछ आलोचना ,समालोचना और प्रशंसा के माध्यम से देशभक्ति में सरावोर दिख रहे थे |तर्क और टी. आर .पी के इस घमासान में यह सच दम तोड़ चुका था की हम आज भी एक राष्ट्र के रूप में आज भी ख़ुद को उतना ही असुरक्षित महसूस कर रहे है |
हादसे की बरषी मनाने में हम लोगों ने जो कुछ किया वो शायद कम ही था |तभी तो हमे यह भी देखने को मिला की जहाँ माँ -बाप अपने बेटे को आतंकवादी हमलो में शहीद होने पर गौरवान्वित होते है वही संदीप उन्नीकृष्णन के माता पिता ने कहा की नही ,मुझे तो गर्व है की वह अपनी कर्तव्य परायणता के कारण शहीद हुआ लेकिन किसके लिए ? और क्यों ? मीडिया का देशप्रेम शायद पूंजीपतियों को ध्यान में रखकर ही मनाया जा रह था,पता नही क्यो मुझे तो लग रहा था की जो आम आदमी मरे थे क्या वो इस देश के नही थे |उनकी सुध लेने वाला तो कोई नही दिखा |१३ दिसम्बर भी तो बहुत ही नजदीक है देखने वाली बात होगी की की ये उन शहीदों की देशभक्ति का देशप्रेम कैसे चित्रित करते है |जिन्होंने दिल्ली के दिल पर हुए हमले में अपनी जान गवाई थी |
मै तो एक बात स्पष्ट तौर पे कहना चाहूँगा की मीडिया अगर अपना देश प्रेम ही दिखाना ही चाहती है ,तो बेमकसद जी रही उन जिंदगियों के लिए कुछ गुहार सरकार से लगाये जिन्होंने अपने अकेले संतान को देश के लिए नयोछ्वार कर दिया और आज भी सांत्वना और संवेदनाओ की रकम की आस में है |देशभक्तों को सिर्फ़ याद कर लने से हम शायद देशभक्त नही हो सकते है |जरूरत है एक ऐसे क्रान्ति की जिसमे देश के जागरूक नागरिक भी अपनी भागीदारी दिखायें और सिर्फ़ सरकार को दोषी ठहराने के वजाए कुछ नई सोच और परिवर्तन के बारे में सोचे |
वो देश कोई भी क्यों हो नौजवानों को कन्धा देकर महान बनने का सपना नही देख सकती है |बल्कि जरूरत है की उन कंधो को इतना मजबूत किया जाए की उन पर चढ़कर आगे बढ़ने का प्रयत्न किया जाए |शब्द ,तर्क और वाक्यों के देशप्रेम से सिर्फ़ उनकी बलि चढ़ाई जा सकती है| वो बीते कल के भगत सिंह हो या फिर आज के संदीप उन्नीकृष्णन हम इनकी शहादत को सही मायने में भुला तो नही सकते लेकिन इनकी शहादत से जरूरत है कुछ सिखने की जिसपर अम्ल किया जा सके और इंसानियत की खातिर देश के ऐसे शहीद को राजनितिक तिरंगों में लपेटकर उनका राजकीय सम्मान के साथ अन्तिम संस्कार नही किया जाए|

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