सोशल मीडिया इंसान के जीवन का अब वो 'आठवां रंग' है जिसके बिना बाकी के सात रंग फीके लगने लगे हैं मीडिया की यह दुनिया अतरंगी और बहुरंगी है पर विडम्बना ये है कि इनमे रंग कम और रोगन अधिक है, तालियां कम और गालियां अधिक है।
आप मानें या ना मानें लेकिन (कथित रूप से) एक-दूसरे से जुड़े रहने के इस माध्यम ने इंसान को पास करने से अधिक दूर किया है, किसी को रातों-रात हीरो तो किसी को जीरो बना दिया है।
इस माध्यम ने ही जहां लखनऊ के टाइपराइटर बाबा किशन कुमार को सुरक्षा गार्ड तक मुहैया करवा दिया, वहीं अलयान कुर्दी की तस्वीर ने मानवता को झकझोर कर रख दिया, मोहम्मद अहमद को मिले विश्व भर से समर्थन ने उसे रातों-रात हीरो बना दिया।
लेकिन इस माध्यम की अपनी सीमाएं और बंदिशें भी हैं। आज मैं आपको इस सोशल दुनिया के 'अनसोशल सच' से रू-ब-रू कराता हूँ। यह जरूरी नहीं कि आप मेरी राय से सहमत हों लेकिन इस मीडिया का एक सच (पक्ष) यह भी है। इस माध्यम के बारे में आपकी भी सकारात्मक या नकारात्मक राय हो सकती है और होनी भी चाहिए।
दरअसल भारत जैसे 'बाजारू' (बाजारवाद की ओर विकासशील) देश में इस माध्यम ने आज अपना पैर 'चादर' से बाहर पसार दिया है इसलिए अब हमारी मूलभूत आवश्यकताओं की रेडीमेड सूची कुछ इस तरह पढ़ी जाती है ....रोटी, कपड़ा और मोबाइल और हो भी क्यों ना जब दुनिया में ही लगभग हर तीसरे व्यक्ति के पास मोबाइल है और उस मोबाइल में उनकी 'अपनी तथाकथित एक सोशल दुनिया'। यहाँ अब लोगों के दिनचर्या का अपडेट .....खाते हुए, नहाते हुए, कॉफी पीते हुए, वायुयान से घर जाते हुए और वश चले तो "फीलिंग रिलैक्स्ड आफ्टर डूइंग पोटी" के प्रारूप में मिलते हैं।
पिछली बार हमारे खेत में काम करने वाला चंद्रशेखर भी कह रहा था भैया एक ठो हमरा भी खाता (एकाउंट) बना देते इसमें बतियाते सबसे हम भी।
यहाँ ये ध्यान रखने वाली बात है की हमारे देश में आज भी सोशल मीडिया का मतलब पहला फेसबुक और दूसरा ट्विटर ही है। विगत 27 अगस्त को इस ब्रहमांड के 'हर 7 में से एक शख्स' ने अपने दोस्त या रिश्तेदार से जुड़ने या बातचीत के लिए फेसबुक का उपयोग किया लेकिन इसकी दुनिया बड़ी है लेकिन इसकी दुनिया बड़ी है, व्हाट्सऐप, वी चैट, लाइन, टिंडर (डेटिंग ऐप), याहू मैसेंजर, फेसबुक मैसेंजर, हाइक, पिनट्रेस्ट, गूगल प्लस, टंबलर, इंस्टाग्राम और ना जानें कई जिनके नाम मुँह जबानी याद भी नहीं हैं। 140 शब्दों की सीमा में चहकने वाले माध्यम (ट्विटर) का नाम लोगों ने तब जाना जब शशि थरूर ने चहकना शुरू किया था, आज यह समाचार प्राप्त करने और देने का सबसे बड़ा माध्यम बन चुका है। ब्रेकिंग खबर यहीं से मिलती है। वैसे कभी-कभी अनुराग कश्यप जैसे लोग 'मिस कॉल देकर मीडिया की फिरकी भी ले लेते हैं', वहीं फेसबुक किसी डॉक्टर के चीट्ठे की वो दवा है जिसे लोग सोने से पहले और जागने के बाद नियमित सुबह-शाम गरोसने लगे हैं।
अब बात अपनी ही कहूँ तो पिछले सात सालों से इस माध्यम का हिस्सा हूं, इसे सीखने और जानने की कोशिश की है, इसे अपनाया है और मन ही मन यहां मौजूद लोगों और उनके क्रिया-कलाप पर एक रिसर्च भी किया है। सन 2008 में दिल्ली आया था, इससे पहले इंटरनेट और उनकी सुविधाओं का उपयोग अमावश्या-पूर्णिमा ही करने को मिलता था। दोस्त सीमित थे और उनसे जुड़े रहने के लिए (विष्णु सिनेमा हॉल के सामने दशरथ के चाय की दुकान या जी डी कॉलेज) शहर के एक चाय की दुकान और एक कॉलेज का मैदान काफी था। लाइव (शाब्दिक) बातचीत के लिए जिस जादुई माध्यम का पहली बार इस्तेमाल किया वह था (Gtalk) जी टॉक, उस समय ऑरकुट का भी क्रेज था। अधिक दोस्तों की संख्या वाले लोग 'पद्म-भूषण' या 'भारत रत्न' टाइप फील करते थे और चिरकुट टाइप स्क्रैपबुक लिखते थे जैसे उनके शब्दों से देश में सत्ता परिवर्तन या कोई बहुत बड़ा बदलाव आ जाएगा।
लुब्बोलुआब ये की यही मनोदशा बदस्तूर आज भी जारी है, ये आप भी अनुभव कर सकते हैं या कर ही रहे होंगें। सिर्फ बदलते समय के साथ सोशल मीडिया का रंग, रूप, आकार बदल गया है। नई बोतल में पुराना माल। यहां अगर आप ढंग का या सार्थक लिखते हैं तो इस कलमुँहे समाज से अनमने (बिना पढ़े) ढंग से भी "लाइक के लाले" पड़ जाएं (क्योंकि अब लोग शायद लाइक के लिए अधिक लिखने लगे हैं) या अक्सर दोस्तों को कहना भी पड़ता है भाई कुछ लिखे हैं मेरे वाल पर आकर देखना। लेकिन अगर कोई लड़की 'फीलिंग इन लव विद 'फलाना कुमार' एंड 27 अदर्स भी लिख दें' तो उनकी मित्र सूची में नहीं होने की बावजूद 400-500 लाइक तो गिर ही जाते हैं जो अगले दिन मेट्रो में ऑफिस जाते वक्त चर्चा का विषय बनता है। 'यू नो मेरे उस वाले 'पाउट' पे ना आई गॉट 300 लाइक्स' और अगले दिन उनका स्टेटस होता है फीलिंग प्राउड।
यहाँ बौद्धिकता से लबालब भरे कुछ कथित लेखक 'चेतन भगत' बनना चाहते हैं तो कुछ कथित लेखिका 'तस्लीमा नसरीन'। इस माध्यम पर मौजूद लोगों में से अधिकांशतः चाइल्ड ऐज सिंड्रोम (Child Age Syndrome) या आइडेंटिफिकेशन क्राइसिस (Identification Crisis) जैसी जानलेवा बीमारी से जूझते मिलेंगे भले उनकी मित्र सूची ठसाठस क्यों ना भरी हो। अगर उन्होंने एक पोस्ट लिखा और 20 मिनट होने तक भी कोई प्रतिक्रिया नहीं आयी तो एक बार दुबारा उसी पोस्ट को एडिट कर पुनः कुछ दोस्तों को टैग करेंगे या खुद ही लाइक कर उस पे प्रतिक्रिया लिखेंगे "क्या आप दोस्तों को मेरा फीड दिख रहा है टाइप"। कुछ अच्छे लोग भी हैं यहां बढियां लिखते हैं, जिन्हें पढ़ना अच्छा लगता है लेकिन उन्हें भी गालियां पड़ती है और वो यहां से कट लेते हैं।
पिछले एक डेढ़ सालों में इस माध्यम ने नकारात्मक लिखने और बोलने वालों के लिए सकारात्मक परिणाम दिए हैं। पिछले लोक सभा चुनाव का परिणाम इसका जीता जागता परिणाम है। पिछले कुछ दिनों में यहां वैमनष्यता बढ़ी है। गंवार, जाहिल और 'पढ़े लिखे जाहिल' का संख्या विस्फोट हुआ है। अब ऐसा मालूम होता है जैसे समाज वर्गों में बटा है "भक्त टाइप, फैन टाइप" या "भुक्तभोगी टाइप", मेरा भी कोई एक टाइप होगा जो आप चुन लें या समझें। मुझे तो शायद ही याद हो जब आखिरी बार (बिना काम के) हमने किसी दोस्त से (अंतरंग) सबसे लंबी बातचीत सोशल मीडिया के किसी भी माध्यम से की हो। हम में से अधिकांश लोग ऐसे ही हैं।
24x7 ऑनलाइन होते हुए भी हम सबके लिए ऑफलाइन होते हैं, कोई दोस्त पिंग ना कर दे, कोई मदद ना मांग बैठे इसलिए हम अकसर ऑफलाइन हो जाते हैं। ऐसी स्तिथि से रू-ब-रू होने पर किस एंगल से कोई किसी को सोशल और इस मीडिया को एक सोशल मीडिया कहना उचित समझेगा? दरअसल, इस माध्यम का नाम भले ही 'सोशल मीडिया' रखा गया हो लेकिन यहां आपको सबसे अधिक 'अनसोशल लोग' ही अब मिलेंगे।
इसलिए बेहतर है कि गंभीर और सार्थक बहस के लिए सोशल मीडिया का सहारा बिल्कुल ना लें वरना आपको लोग यहां बेसहारा मान बैठते हैं।
इस माध्यम में टाइप्ड होनी की आजादी है लेकिन यह टाइप्ड होना आपको एक ऐसी दिशा में ले जा रहा है जहां से 'घरवापसी' मुश्किल है। इसलिए लिखिए, पढ़िए, फॉलो कीजिये लेकिन टाइप्ड होने से बचिए।
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