Friday, October 9, 2009
बचपन
वो दिन कितने अच्छे थे, जब तुम एक नादान बच्चे थे।
मुस्काते थे एक परी की तरह, कागज की तरह सच्चे थे॥
मन था चंचल, उद्वेलित, लेकिन धुन के पक्के थे।
काश कहूं मैं ये सब किससे कि तुम कितने अच्छे थे॥
याद करूं मैं निश दिन तुम को जब तुम ओझल हो जाते।
खुशी की रेत में, “मेरे गम” आसूं की तरह थे खो जाते॥
आज भी मैं यादों में खोया,वो दिन कोइ लौटा दे।
फिर से देखूं तुझे यूं ही,तू एक बार तो मुस्का दे॥
मैं भी पागल सोच रहा हूं, वो दिन कहां से लाउंगा।
ताश के बने घरों में , कैसे मैं रह पाउंगा॥
वो दिन कितने अच्छे थे, जब तुम एक नादान बच्चे थे।
मुस्काते थे एक परी की तरह,कागज की तरह सच्चे थे॥
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4 comments:
वो दिन कितने अच्छे थे, जब तुम एक नादान बच्चे थे।
मुस्काते थे एक परी की तरह,कागज की तरह सच्चे थे॥
गौतम बाबु
क्या उपमा दिया है आपने "कागज की तरह..."
कविता में निखार दिख रही है भाई....
हर अशआर पसंद आये ....
अच्छा लगा पढ़ के, अगली रचना का इंतज़ार रहेगा
आपका शुभेक्षु
gautam ji bachpan ke din to laut ke nahi aa paate hai lekin uski yaad hamesha jehan me rahti hai aur jab bhi dil ko thesh lagti hai to yaad aa jata hau bachpan ???????????gautam ji ye haal sirf aapka hi nahi har kisi ka hota hai ?infact nice one from your pure heart
बेह्तरीन रचना!!!
गौतम बाबू! आप बधयी के पात्र हैं.
निश के जगह क्य नित नहीं होना चाहिये? ज़रा गौर कीजियेगा.
और अन्त मे, बहुत ही बेह्तरीन लिखा है, सुन्दर. अच्छे विशेषन दिये हैं.
लिखते रहिये.
mujhe andaza nahi tha aap itna achaa likhte hain...waah bahut khoob
mere blog ka link hai...http://iamfauziya,blogspot.com
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