Thursday, July 15, 2010
Football Fever of paul
The one month long festive of FIFA lasted with the forecasting of the "Paul" wining the spain the world cup first time in the history of Football world cup . The psychic octopus headed into well-deserved retirement Monday and will in future make children happy instead of footballers.
He is retiring and says thank you to the whole world. It was a great World Cup,where paul becam the international star and covered more space and time on the telivision than Kaka,Ballack,Via and any one else .
Now Paul will do what he does best, making children happy in his aquarium, as he had before the World Cup.
Paul became a global star when he accurately forecast all of Germany's seven World Cup games. And he then topped it all by also predicting Spain's win over the Netherlands in the final.
Paul made his famous predictions, which were in the end even televised live, by being offered a mussel each in two tanks, each with the flag of respective nation. The nation whose mussel he chose would win the match.
Politicians, players and coaches were as gripped by Paul-mania as the rest of the world, his forecasts proving a good distraction from the often dour football played in South Africa - and a huge PR stunt for Sea Life as well.
just fter finishing the world cup the pet shops of Delhi is also getting too many calls for a"paul "to be like pet in aquarium like fishes. but wild life is against it and the import of the octopus is illegal because it lies under endangered sea animal .
Monday, July 12, 2010
मौन हैं शब्द !
कभी ख्वाब में भी नहीं सोचा था ऐसा होगा |
जिसे मै कहता था अपना खुदा वो जुदा होगा ||
खुदा की बन्दगी कभी कर नहीं पायी |
इस खुदा से खुद की है ये कैसी जुदाई ||
आज गुमशुम सी जिन्दगी में तन्हा जीना पड़ता है |
वक्त की नजाकत को देखकर यूं ही मौन रहना पड़ता है ||
उनकी शिकायत है कि मैं सच नहीं बोलता |
शब्दों से हुई गुस्ताखियों को कभी नहीं तौलता ||
अनायास खुद को इतना अकेला पाता हूँ |
मरना भी कम लगता है, अगर मैं मरने जाता हूँ ||
जिसे मै कहता था अपना खुदा वो जुदा होगा ||
खुदा की बन्दगी कभी कर नहीं पायी |
इस खुदा से खुद की है ये कैसी जुदाई ||
आज गुमशुम सी जिन्दगी में तन्हा जीना पड़ता है |
वक्त की नजाकत को देखकर यूं ही मौन रहना पड़ता है ||
उनकी शिकायत है कि मैं सच नहीं बोलता |
शब्दों से हुई गुस्ताखियों को कभी नहीं तौलता ||
अनायास खुद को इतना अकेला पाता हूँ |
मरना भी कम लगता है, अगर मैं मरने जाता हूँ ||
Thursday, July 1, 2010
EVEN SHOES ARE NOT SAFE ?
" ये जूता है जापानी ........ न मेरा जूता जापानी था न ही चीन का लेकिन इसकी अहमियत अभाव और कशमकश भरी जिन्दगी में शायद कुछ ज्यादे हो गयी थी |मंदिरों और मस्जिदों में जूतों की चोरी या सहसा उसका गायब हो जान एक आम बात है , लेकिन अगर आपका घर भी खुद को सहज ना पाए तो हो सकता है आपको ज्यादे तकलीफ होगी |जीवन के अध्यात्मिक दौर की समाप्ति मेरे लिए काफी दुखद साबित हो रही है, लम्बे समय के बाद कल फुर्सत मिली तो सोचा कमरे में लगे मकडी के जालों से निजात पा लूं , क्या पता था कि ये साफ़ सफाई भी इतना महंगा पडेगा |
दिल्ली की चिलचिलाती धुप में जब नंगे पाऊं घूमने की बारी आई तो सहसा गरीब की गरीबी और अपना बेचारापन याद आ गया | इसे मेरी लापरवाही कहें या मन मौजीपन लेकिन नोइडा के मामूरा गाव में देर रात सोने और सुबह देर से जागने के शायद सबसे महंगी कीमत मैं चुका रहा हूँ| छः महीने के अंतराल के बाद एक जूता खरीदने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था वो भी कल रात चोरी हो गयी |उसे सुबह खूब कोसा , गाली भी दी, लेकिन गुस्सा शांत हुआ तो सोचा कि शायद उसे मुझसे ज्यादे जरूरत थी इसकी इसलिए तो चुरा लिया !उसने मुझसे दस रुपये मांग लिए होते , या खाना मांग लिया होता, उसे क्या पता कि उसकी आदत मुझे इतना दुख दे जायेगी |
पिछले बार जब घर से आ रहा था तो दादा (पिता जी )ने पैर में एक टूटा चप्पल देखकर कहा "दिल्ली में ऐसे ही रहते हो और पांच सौ रुपये खर्च से अलग देकर जूता खरीदने को कहा था |उन्हें क्या पता कि पत्रकारिता जीवन में जूते घिसने के वजाई पैरों को घिसना पडेगा | कुछ दिनों पहले "ताज होटल" में हिन्दुस्तान टाइम्स के एक आयोजन "आई लव देल्ही माई दिल्ली माई गेम्स " में जब शीला दीक्षित , सुरेश कल्मांदी , और विजेंदर कुमार से रू बरू होना था तो दरबान ने मजाकिए लहजे में कहा कि आप पत्रकार हो लगता नहीं है, उसके इस मजाक पर उस समय तो उसे देखा कर हस दिया क्योंकि वहां से खबर लाने थी और मेरे लिए खबर अहम् थी न कि मै ने क्या पहन रखा है और कहाँ जा रहा हूँ !
वाकई दिल्ली के उतने बड़े होटल के कर्मचारी भी टाई और सूत बूट में होते हैं |मै ने सोचा था कि इस जूते के घिसते -घिसते कहीं न कही तो बैठने की जगह तो मिल ही जायेगी लेकिन भाग्य को शायद कुछ और ही मंजूर था | पहली बार किसी आलेख को उसके अधूरेपन में छोड़ रहा हूँ , जिसके लिए क्षमा प्रार्थी हूँ|
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