Friday, October 22, 2010

आपके लिए !

ये न दिल का दर्द है, न दिल की आवाज ,अफसानों के आँगन में बैठ कर यादों के झरोखे से जब बाहर की दुनिया देखता हूँ तो भाव बर्बश बोल बन जाते हैं।


तन्हाई के साये हैं और आँख मिचौली करती जिन्दगी .
रूठ गया न अब तक माना मैं कैसे करूं उसकी बन्दगी .

पत्थर नहीं इंसान हैं हम कैसे सहें उनके ये सितम.
अल्फाजों का अब क्या कहना,क्या ये बन पायेंगे मरहम .

बीते पल को याद करूं ,वो याद ही बन जाते हैं गम.
घर भी अब सूना लगता है , जब छत पड़ जाते है कम.

मान लिया था खुदा उसे जिसकी कभी न की खुदाई .
पीड पडाई देखी थी ,अब सहनी पड़ेगी हमें भी जुदाई .

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