Sunday, September 13, 2015

हिंदी हम कहलाते हैं !














माँ को मम्मी, बापू को डैड, 
नमस्ते भी हो गया है हाय,
अंग्रेेजी की बैशाखी से टुकुड़धुम  चल पाते हैं
हिंदी का स्वांग रचाते हैं, हम हिंदी कहलाते हैं। 

उधार लिए शब्दों से हम सब बातचीत कर पाते हैं 
एक वाक्य में अन्य भाषा के बस पांच शब्द घुसियाते हैं 
हिंदी का ढोंग रचाते हैं, हम हिंदी कहलाते हैं।

दिन, दिवस और पखवाड़े हम उनके लिए मनाते हैं
अस्त हो रहा जिसका 'सूरज', हम उसको दिया दिखाते हैं    
हिंदी का ढोंग रचाते हैं, हम हिंदी कहलाते हैं। 

गूगल हुआ अब माई-बाप, 
यूँ साहित्य में लालित्य होगी अब बीत चुकी बात 
सुनो भईया,
नौकरी पाने को हम अब 'रिज्यूमे' बनवाते हैं
गिने चुने शब्दों से खूब अपनी धौंस जमाते हैं
हिंदी का ढोंग रचाते हैं, हम हिंदी कहलाते हैं। 

सिनेमा जगत भी अब डबिंग की कमाई खाते हैं 
पब्लिक से जब अंगरेजी में वो फटर-फटर बतियाते हैं
हिंदी का ढोंग रचाते हैं, हम हिंदी कहलाते हैं। 

फैलाते हुए आतंक 
हिंदी के ये भुजंग 
का, को, की, में, पे, पर और कहूँ तो यमक 
पर लोगों को कनफुजियाते हैं
हिंदी पर लगाके यूँ  ग्रहण 
रहबर ही अब इसका मसान बनाते हैं 
हिंदी का ढोंग रचाते हैं, हम हिंदी-हिन्द कहलाते हैं। 

Friday, September 11, 2015

चुनाव के बाजल पीपहू ; जीततै पार्टी हारभो तोयं



बिहार में विधानसभा चुनाव की तारीखों की घोषणा कर दी गई है। अब शुरू होगा ‘बिहार, ईवीएम (बैलेट), वोट और बाटली का असली खेल। सुना है राजनीति शब्द की उत्पत्ति यहीं से हुई है, चाणक्य से लेकर अशोक तक इसका साक्षात प्रमाण हैं वैसे इस ‘डिजिटल इंडिया‘ वाले युग में यहां पांच साल का नाक बहता (नेटा चूता) बच्चा भी इस शास्त्र में निपुण है।

वो रिक्शा वाला हो या ठेला वाला या फिर फेरी वाला या फिर ट्रेन में सफर कर रहा एक व्यक्ति, अगर आप गलती से भी राजनीति में एक बिहारी से टकराए तो एक आध घंटे तो वो बिना सांस लिए आपको ज्ञान पेल (बघार) सकता है।

बिहार चुनाव का पीपहू (बिगुल) बज चुका है, चुनावी रण में शंखनाद के लिए सभी पार्टियों ने कमर कस ली है। लालू भी मुरेठा कस चुके हैं और उनके चड्डी फ्रेंड नीतीश फारा (किसी भारी-भरकम काम को करने से पहले कमर को गमछे से बाँधना)।

हम सब के प्रधानमंत्री मोदी भी दो-तीन चुनावी रैलियों में एक-डेढ़ शब्द जैसे ‘कैसन बा’ बोल आए हैं, लेकिन डर लगता है कि लोग इसे चुनावी जुमला ना समझ बैठें !

लालू यादव ने चुनाव की तिथि घोषित होने के बाद इसे ‘देश का चुनाव’ बता दिया, हो भी क्यों ना, एक तरफ नीतीश (बिहारी DNA पर मोदी की प्रतिक्रिया से लगी तितकी के बाद) इसे बिहारी अस्मिता से जोड़कर भुना रहे हैं।

लगभग 10.41 करोड़ आबादी वाले इस राज्य में 6.68 करोड़ मतदाता हैं जिन्हें अपने लिए राज्य का एक बेहतर मुखिया चुनना है। ऐसा कहा जाता है कि साक्षरता एक सरकार चुनने में अहम भूमिका निभाती है ऐसे में 2011 में जारी सेंसस रिपोर्ट के मुताबिक 61.80 फीसदी जनता को एक अहम किरदार निभाना होगा।

यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि बिहार विधान सभा चुनाव “NDA का DNA” टेस्ट है। एक ऐसा डीएनए टेस्ट जो प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी के आने शासन काल की दशा और दिशा दोनो तय करेगा वहीं दूसरी ओर बिहार की राजनीति में एक नया भोर (सुबह की किरण) लेकर भी आ सकता है।

दिमाग का रायता कर चुके समाचार चैनल पर प्राइम टाइम यूजर्स को इंद्राणी मुखर्जी और लाल साड़ी वाली राधे  से थोड़ी राहत मिल जाएगी और लिट्टी-चोखा टाइप कुछ नया देखने को भी मिल जाएगा। कुछ दिनों के लिए ही सही मूड ‘झाल-मुरही और कचड़ी‘ टाइप हो जाएगा और ‘इंडिया’ लुटियन दिल्ली और मेट्रो शहर से बाहर निकलकर भारत के एक राज्य बिहार के सुदूर गांव में किराए पर रहेगा।

जहां अब रोज जदयू-राजद, भाजपा और बसपा टीआरपी की होड़ में हिन्दी मीडिया के ‘सूत्र‘ (कभी पता नहीं लगने वाला/बिग बॉस की तरह ना दिखने वाला) के हवाले से दो चार सीट आगे पीछे रहेंगे, हो सकता है कड़ी टक्कर भी देते दिखें। आप घबराइएगा नहीं ये टक्कर आपको दिग्भ्रमित करने के लिए भी हो सकता है… बस प्राइम टाइम में चैनल बदलते रहिएगा और हर एक मिनट के बाद पांच मिनट का ब्रेक ले लीजिएगा और देखते रहिएगा मनपसंद कार्यक्रम ‘धैलो लाठी कपाड़ पर‘।

कुछ चैनल भाजपा को जिताएंगे तो कुछ ‘ढाई टांग‘ वाले गठबंधन को। आप सब अपनी सीट पर जमे रहिएगा और प्राइम टाइम भी देख सकते हैं, वैसे प्राइम टाइम देखकर आप में से बहुत कम लोग वोट देंगे। हो सकता है इससे कन्फ्यूजन बहुते क्लियर ना हो पाए तो किसी को सीट पर बैठाने के लिए विवेक का इस्तेमाल करिएगा। वैसे भी जन-धन वाले अकाउंट में इस बार 1.25 लाख करोड़ वाला कुछ झाड़न-झुंडन तो आ ही जाएगा।एक आध बार पासबुक सिरहौना से गोड़थारी (एने-ओने) या हिला-डोला कर देख लीजिएगा। क्या पता इस बार वाला ‘चुनावी जुमला’ ना हो वैसे गया के चुनावी रैली में आपका उन्माद तो यही कह रहा था।

इस राज्य में जातिवाद है और यह लोगों की नसों में घुसियायल (भरा) है, पिछली बार चुनाव में कहा गया कि बिहार जातिवाद से ऊपर उठ गया, राज्य को इतना बड़ा मैंडेट मिला है लेकिन यह महज एक भ्रम था। जब तक जातिवाद की राजनीति है यह अंदाजा लगाना मुश्किल होगा कि ऊंट किस करवट बैठेगा। यादव वोट पर लालू वर्षों से कुंडली मारे बैठे हैं लेकिन पिछले दस साल से बिहार में हाशिए पर चल रहे राजद के लिए जनता पार्टी का ढनमनाता गठबंधन एक नया विश्वास लेकर आया है, नीतीश के साथ आना उनके लिए फायदेमंद साबित होगा। वहीं कुर्मी, कोयरी और मुस्लिम वोट हर चुनाव में जदयू को ही जाता है वहीं भूमिहार और सवर्ण वोट पर कमोबेश भाजपा का कब्जा होगा, कुल जमा दंगल जबरदस्त होने वाला है।

अभी हाल में एक फिल्म मांझी आयी थी और बीच में बिहार में जीतन राम मांझी कुछ दिनों के लिए मुख्यमंत्री भी बन पाए थे। मुसहर समुदाय का वोट मांझी भी ले जा सकते हैं, वैसे यह फिल्म तो नहीं चली लेकिन बिहार की राजनीति में मांझी लोग जाग गए होंगे लेकिन सिनेमा देखकर तो कतई नहीं!

16वीं लोक सभा चुनाव में भाजपा को मिले विशाल जनमत में वोटों का कुल प्रतिशत 31 फीसदी था। वैसे बहुत सारे बिहारी रोजी रोटी के चक्कर में दिल्ली से दुबई तक ढेंगराए (पसरे) हुए हैं सवाल यह भी है कि क्या वो वोट देने जाएंगे। नहीं भी जाएंगे फिर भी वोटिंग होगी और जीत भी किसी ना किसी पार्टी की होगी। मौका मिले तो जाइएगा, वैसे भी दीपावली, छठ, मुहर्रम और बकरीद सब उसी समय है, हमहूँ सामान सरियाना (समेटना) शुरू कर दिए हैं, टिकट हो गया तो जरूर जाएंगे।

लोक सभा चुनाव के काले धन वाले ‘चुनावी जुमलों’ के बाद मोदी सरकार ने बिहार के लिए (चाइये कि नहीं चाइये टाइप इस्टाईल में) 1.25 लाख करोड़ के पैकेज की घोषणा की है वहीं नितीश इसे पुराने पैकेज की री-पैकेजिंग बता रहे हैं और एक नए विजन के साथ 2.5 लाख करोड़ की घोषणा कर दी है। अब यह देखना भी दिलचस्प होगा कि कुल जमा 3.75 लाख करोड़ से बिहार का कितना विकास होता है, ये ‘क्योटो बनेगा या अगले पांच साल में ‘बनने वाला काशी‘।

बिहार की सड़कें बेहतर हुई हैं, गांव में भी बिजली लगभग 17-18 घंटे रहती है,  (पहले आता नहीं था (जब चप्पल उल्टा करके मनाते थे कि जल्दी आ जाए मैच तो छूट गया) अब जाता नहीं है। शिक्षा मित्रों की बहाली भी हुई है लेकिन शिक्षा व्यवस्था अब भी जस की तस है। शिक्षा व्यवस्था में बहुत सुधार की गुंजाइश है, देश के भविष्य का वर्तमान सुधारने वाले काबिल लोगों की कमी है। 2000 छात्रों पर चार पांच शिक्षक मिला जाएंगे वो भी पढ़ाई लिखाई में नीपल-पोतल (जीरो बटे सन्नाटा) मिलेंगे। एक आध बार हम भी स्कूल में पढ़ाने गए थे जानकर दुख हुआ कि बढियां मास्साब नहीं हैं, छात्र-छात्राओं को स्कूल जाने के लिए साइकिल भी मिला है वो जाते भी हैं। शिक्षा व्यवस्था में बहुत सुधार की गुंजाइश है यह राज्य देश के किसी भी राज्य को हर मामले में पीछे छोड़ सकता है। अभी भी इस राज्य से पलायन कम नहीं हुआ, भले आपको इस धरती पर एलियन मिले ना मिले इस ब्रह्मांड के किसी भी भूभाग में बिहारी जरूर मिलेगा।

गॉंव मुहल्ले में पॉलिथीन वाले शराब के ठेकों ने बिहार के युवाओं को असामयिक मौत की तरफ धकेला है, पिछले चार-पांच सालों में युवाओं में शराब पीने की लत बढ़ी है, यह किसी ‘सूत्र’ नहीं आँखों-देखी और कानों-सुनी बात कह रहा हूँ। पिछले साल गाँव गया था तो कई युवाओं के मौत की खबर सुनने को मिली और वजह शराब थी। शासन व्यवस्था सभी राज्यों की लगभग एक जैसी ही होती है, बिहार अपवाद नहीं है।

दीपावली से पहले परिणाम भी आएगा और बिहार वासियों को मुर्गा छाप छुरछुरिया और फुलझड़ी (पटाखा) छोड़ने का मौका भी मिलेगा लेकिन भोट करिएगा तभी तो।

वैसे एगो राज की बात बताएं श्श्श…. बिहार की राजनीति में साक्षर सभी हैं लेकिन चुनाव के समय पौआ और पॉलिथीन के चक्कर में पढ़लो-लिखल निरक्षर हो जाएं।

अभी के लिए इतना ही। देखिये अगली बार केक्कर सरकार।

Friday, September 4, 2015

एक शिक्षक होने का सुख !!!

2006 में अपने कमरे में छात्रों को पढ़ाते हुए 
बीते सोमवार सप्ताहांत की छुट्टी में कमरा साफ करते हुए कुछ पुरानी तस्वीरें हाथ लगी, कुछ यादें जिसे सहेज कर रखने की आदत है मेरी।

सालों पहले कभी डायरी लिखने की आदत थी, उनके पन्ने पलटकर जब देखने का मौका मिला तो लगा जिंदगी के बेहतरीन पलों को पीछे छोड़ मैं भी 'शहर' हो चला हूँ।

मध्यमवर्गीय परिवार से होने की वजह से छात्र जीवन की अपनी कुछ सीमाएं थी। उन सीमाओं के साथ वाली पगडंडियों पर चलकर रोजगार के सिलसिले में दिल्ली आ गया।

जीवन के कई बसंत बीत गए। कुछ चीजें ऐसी हैं जो आज भी दिल और मन को रोमांचित कर देती है, एक शिक्षक होना और "शिक्षक होने का सुख" इसी कड़ी में जीवन के साथ जुड़ गया, जिसकी स्मृतियां अविस्मरणीय हैं। हालांकि ये सफर मेरे लिए आसान नहीं रहा है पर अतीत चाहे कितना ही संघर्षशील क्यों ना हो उसकी स्मृतियां सदैव मधुर होती है।

उन सभी छात्रों का शुक्रिया जिनकी वजह से मैं शिक्षक बन पाया, मैं एक अच्छा बोलक्कर बन गया और अटूट निश्छल प्रेम और स्नेह मिला। पता नहीं क्यों लेकिन आज उनके बारे में लिखने का दिल कर रहा है। यादों के साये सच में साथ ही होते हैं।

मेरे सबसे पहले शिक्षक मेरी माँ और दादा (बाबूजी) हमेशा से मेरे प्रेरणास्त्रोत रहे हैं जिन्होंने मुझे एक बेहतर इंसान बनाने के लिए अपनी जिंदगी खपा दी। उनको ये दिन समर्पित। इस सफर में मुझे लगभग 6 सालों तक एक शिक्षक के जीवन जीने का सौभाग्य मिला। इसकी भी कहानी एक सामान्य किसान परिवार के लड़के के लिए किसी रोमांच से कम नही है।

NDA की फाइनल परीक्षा में सफल ना होने की वजह से दादा ने डांटकर कहा अब आप अपनी पढ़ाई का जिम्मा उठाओ। ट्यूशन पढ़ाना उस समय मेरी मजबूरी थी। 2002 में BSA की 24 इंच वाली साइकिल चलाकर 250 रूपए के लिए पढ़ाया वो पहला होम ट्यूशन और वो छात्र याद आ रहा है। मैं उस छात्र का सबसे बढ़िया दोस्त था, वह मेरे साथ खूब मस्ती करता था और यहीं से शुरू हुआ मेरे शिक्षक बनने का सफर। कालांतर में इस जीवन से प्रेम हो गया। इसे खूब जिया, खूब पढ़ाया, (17-18 की उम्र में ही ) बच्चों से खूब सम्मान पाया।

दादा की नसीहतें साथ में थी की शिक्षा दान की चीज है सो जहाँ तक संभव हो सका इस आर्थिक युग में इसे दान करने से गुरेज नही किया। उस आर्थिक रूप से विपन्न छात्रों की प्रतिभा का आज भी कायल हूँ।

होम ट्यूशन का सफर एक कोचिंग तक पहुँच गया था, छात्रों की संख्या बढ़ गयी थी और जिम्मेदारी का भाव भी। यहां से मेरे जीवन में एक नया मोड़ आया जब मेरा चयन BHU में फ्रेंच भाषा से स्नातक के लिए हुआ था, लेकिन किसी खास वजह से दाखिला नहीं ले पाया। मेरे छात्र मेरे इस चयन पर दुखी थे लेकिन जब उन्हें पता चला कि मैं नहीं जा रहा हूँ तो उनके चेहरे की खुशी मेरे दाखिला ना ले पाने के गम पर भारी पड़ गया।

आज जब नयी पीढ़ी के छात्र-शिक्षक संबंध बदल रहे हैं। शिक्षकों की गुणवत्ता में बदलाव आ रहे हैं तो मुझे वो वाकया याद आ रहा है जब  वर्ष 2005-06, अगस्त माह की 13 तारीख थी, पूरी रात जोरदार बारिश हुई, सुबह जब आँख खुली तो मेरे कमरे (40x30 हॉल) के सामने वाले आँगन में पानी लबालब भर चुका था, तब मैं ने अपने घर पर पढ़ाना शुरू कर दिया था ( लगभग 13 बैच में 350 से अधिक छात्रों पढ़ाता था)। बारिश दो तीन दिन लगातार हुई, आँगन में खाई होने की वजह से पानी इतना भर गया था कि मुझे लगा अब छात्रों को नहीं पढ़ा पाउँगा या सारे बैच बंद करने होंगे लेकिन सभी छात्रों ने दो-तीन दिन तक उस जमे पानी को निकालने का प्रयास किया हालाकि लगातार बारिश ने उनके इरादों को विफल कर दिया; पर उनका ये स्नेह ये समर्पण आज भी अक्षुण है और चिरस्थायी भी। आखिरकार मुझे ही उन छात्रों की जीवटता के आगे झुकना पड़ा और पढ़ाने के लिए अलग कमरा किराये पर लेना पड़ा।

इस मुफलिसी के दौर में ठिकाना एक दोस्त के यहाँ होता था जिसका कृतज्ञ हूँ मैं। यह सिलसिला चलता रहा। कभी कभी मेरा हौसला भी डगमगाया पर मैं इसमें इतना डूब गया था की इसके बगैर नींद भी नही आती थी। यही मेरा रश्क भी था और इश्क भी।   .

एक ऐसा ही और वाकया तब हुआ जब नवरात्र के दौरान दरभंगा से परीक्षा देकर लौटते हुए बरौनी से बेगुसराय (जन्म भूमि और कर्मभूमि) वापस जाने की कोई व्यवस्था नहीं थी। ट्रेन सुबह 05 बजे थी और मेरा पहला बैच 06 बजे, वहाँ से जाने का कोई साधन नहीं और जेब में मात्र 70 रूपए बचे थे। उस रात भी बारिश हो रही थी मैं लगभग 13 किलोमीटर पैदल ही चला गया। पाँव में छाले पड़ गए थे, राष्ट्रीय उच्च पथ (NH-31) पर लम्बी ट्रक सांय-सांय पास करते हुए डरा रही थी। लगभग दो घंटे पैदल चलने के बाद घर पहुंचा। सुबह छात्र अपने नियत समय पर पहुँच गए लेकिन मेरे पढ़ाने के इस जज्बे और पंचर हालत को देखकर सबों ने खुद ही छुट्टी कर ली।

पिछले साल (एक मुलाकात के दौरान पता चला) कुछ छात्रों के पास आज भी अपने पहले दिन का नोट संभालकर रखा है जो मैं ने अपनी लेखनी से थिन पेपर पर लिखा था, या जिसमें पढ़ाने से पहले मैं थॉट ऑफ द डे लिखता था। यह देखकर दिल वाकई गद-गद हो गया और मन सेंटी।

एक शिक्षक को जिस तरह का जितना मातृ-सुख या पितृ-सुख या सम्मान मिलता है, उतना ब्रह्मांड के किसी मां-बाप को नहीं मिल सकता है। आज यह लगता है कि वो छात्र ना होते तो मैं यह सब नहीं कर पाता। वाकई मैं सौभाग्यशाली था कि आप लोगों जैसे छात्र मिले। मैं आज भी उन सब छात्रों को याद करता हूँ और उनके सफल जीवन की कामना करता हूँ। आज भी जब कभी कोई भी भूले बिसरे मुझे फोन करता है तो उनकी आवाज से मेरे अन्दर का वो शिक्षक जाग जाता है। उन छात्रों का पुनः शुक्रिया जिनकी वजह से मैं कभी शिक्षक बना। इस कसौटी पर कितना सफल या असफल हुआ ये तो वही छात्र बताएंगे।

Monday, August 24, 2015

सच्ची प्रीत है मांझी...!



कुछ कहानियाँ ऐसी होती हैं जो अखबार के पन्नों तक सिमट कर रह जाती हैं, कुछ डिनर के वक्त चर्चा का विषय बन जाती हैं, कुछ कहानियाँ टीवी के लिए ब्रेकिंग न्यूज़ (हॉट टॉक) और कुछ ऐसी होती हैं (जिनमें सत्य होता है), जिसकी आपने कभी कल्पना न की हो, उसके साथ सिर्फ बड़ा पर्दा ही न्याय कर पाता है ऐसे ही दशरथ मांझी के सच्चे प्रेम की सच्ची कहानी है 'मांझी -The Mountain Main'।

ऐसी बहुत कम फिल्में होती हैं जिन्हे देखकर आपको कुछ लिखने का दिल करे या वो आपके दिमाग में घूमती रहे लेकिन इस फिल्म में 'सांची रे ,सांची रे मांझी तोरा प्रीत है सांची.....' जैसे शब्द अभी भी प्रतिध्वनि की तरह सुनाई दे रहे हैं।

आज से सात साल पहले जब दिल्ली आया था तो एक मित्र ने मांझी की कहानी बतायी थी, तब भी आश्चर्य हुआ था कि कोई ऐसा कैसे कर सकता है! वाकई प्रेम में एक अदम्य साहस है, मांझी के "विरह में भी एक अजीब प्रेम" है।

उसका एक प्रेम फगुनिया से है लेकिन उसकी मौत के बाद अपनी जान पर बनने के बाद दूसरा प्रेम पहाड़ से भी है, प्रेम के इन दो अलग-अलग रूप को देखकर कभी-कभी आँखें सजल हो जाती हैं।  

ऐसा काम सिर्फ एक सनकी, ठरकी या (बिहारी भाषा में) बौरा गया और प्रेम में डूबा इंसान ही कर सकता है। बेमिसाल छायांकन और सहज संवाद इस फिल्म की सबसे मजबूत कड़ी है।

फिल्में खान, कपूर और अख्तर भी बनाते हैं और वहीं इरफ़ान, नवाज़ और मेनन भी। दोनों तरीके की फिल्मों में अंतर बिलकुल स्पष्ट दिख जाता है।      

सच और कहानी में फर्क होता है, मांझी एक सच है इस समाज का, वर्ग का, उस जातिवाद का जो आज भी मौजूद है और सबसे अधिक एक ऐसे इंसान का जिसने प्रेम और विरह की बीच कुछ ऐसा किया जिसे रूपहले पर्दे पर नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी ने जिया है। सरफरोश में 54 सेकंड के किरदार से मांझी के 2 घंटे 04 मिनट तक का सफर नवाज़ का मार्केट रेट तो फिक्स कर ही देता अगर यह फिल्म लीक ना हुई होती।

इस फिल्म को देखते वक्त मुझे 'पान सिंह तोमर' के इरफान की याद आने लगी। जिसे बनाने के बाद एक साक्षात्कार में तिग्मांशु धूलिया ने कहा था कि अगर "हीरो (Khans) को चंबल में शूटिंग के लिए ले जाया जाए तो उनके नाक से खून आ जाएगा।  

कुछ फिल्में हीरो और 'अभिनेता' के बीच का अंतर बताती हैं मांझी उनमें से एक है। केतन मेहता ने एक बार फिर "शानदार, जबरदस्त और जिंदाबाद" फिल्म बनायी है।

कभी-कभी तो ऐसा लगता है मानो पहाड़ भी एक जीवंत किरदार हो, नवाज़ का उन पहाड़ों से बात करना शाहरूख के घोड़े से बतियाने वाले (बनावटी) किरदार से लाखों गुना बढियां लगता है। भारी-भरकम संवाद को सहजता से कहने की कला में जैसे उन्होंने महारत हासिल कर ली हो 'जैसे इ प्रेम में बहुत बल है बबुआ' या अखबार निकालना पहाड़ तोड़े से भी ज्यादे मुश्किल है क्या ।

फगुनिया के छोटे से किरदार में राधिका आप्टे सही लगी हैं वहीं पंकज त्रिपाठी और मुखिया (तिग्मांशु धुलिया) भी अपने किरदार के साथ फिट बैठे हैं। 

यह फिल्म भले ही सौ करोड़ वाले क्लब में शामिल ना हो लेकिन अवार्ड तो जीतेगी ऐसी उम्मीद है।

प्रेम और विरह की बीच कभी पहाड़ भी किसी का साथी हो सकता है इसे भी कमाल तरीके से दर्शाया गया है। सिनेमा हॉल में इस फिल्म को देखने वाले दर्शक कम थे, कुछ दर्शकों को अपच लग रहा था और बहुतों ने तो डाउनलोड कर ही देख लिया होगा।

एक व्यक्ति अपनी जिंदगी खपा देता है एक फिल्म बनाने में, उस पर रिसर्च करने में, एक अभिनेता उस किरदार को जीने में वर्षों लगा देता है और कुछ लोग उसे डाउनलोड कर देख लेते हैं, ऐसी फिल्में कम बनती हैं, ऐसी फिल्मों को हॉल जाकर देखना चाहिए।

वैसे 'On a lighter note'  मैं इस फिल्म को डाउनलोड कर देखने वालों के लिए दो मिनट का मौन रख लूंगा। :P :P

उम्मीद करता हूँ कि इस फिल्म के सफल होने के बाद रियल लाइफ के मांझी (22 साल तक लगातार पहाड़ तोड़ने वाले) के परिवार की स्थिति भी थोड़ी सुदृढ़ होगी। एक और मांझी अभी बिहार के आने वाले विधान सभा चुनाव में सक्रिय भूमिका निभाने वाले हैं लेकिन इस माउंटेन मेन मांझी का राजनीतिकरण ना हो तो खुशी होगी।

रील लाइफ के मांझी को इससे भी बढियां और ढेर सारी फिल्म मिले । मांझी एक बेहद ही उम्दा और शानदार बनी फिल्म है, नवाज़ का फैन तो मैं पहले भी था लेकिन इस फिल्म को देखकर फैनेटिक हो गया, इस बन्दे की फिल्म का इन्तजार करता हूँ।

आपने नहीं देखी है तो उस रियल लाइफ के मांझी के लिए ही सही इसे एक बार देख लीजिए।   

Wednesday, March 18, 2015

Legends don't retire

I was in no mood to pen down anything after witnessing a one sided affair between Lankan Lions and Proteas but this is the picture seen on social media that has forced me to pay a tribute to both the legends Mahela and Sanga.

It took almost 23 Years for South Africa to put a full stop on its knockout hoodoo. RSA has become the first team to enter Semi Final of the ongoing ICC Cricket World Cup 2015. Kumar Sangakkara and Jayawardene wouldn't have expected such a retirement !

One must really feel for Sanga and Mahela....why mostly legends end their careers in a tragedy! Be it Dravid, Sourav, Sachin or Ponting .

The leading run scorer of world cup (541 runs in 7 matches) with four consecutive centuries was looking annoyed at the other end while no one stayed to "make it a day" memorable for them.

Cricket has produced many greats and pair across International arena but the jodi of Mahela & Sanga will always be remembered as the greatest ambassador of cricket.

The pair of Sourav- Sachin had also enjoyed many more success but personally i feel watching this pair bat was eye soothing. There is a common saying that Legends don't retire and same is the case with this pair.

Sri Lanka takes the 'C' word from South Africa :
The first quarter-final between the two more schizophrenic teams of the tournament yielded a below expected result, perhaps we as an spectator were looking for some fight, grit and determination from both sides but the unnecessary experiment costed SL a home ticket.

It was looking that they have taken back the most talked tag of chokers "C" from Proteas. I am still thinking that has SA really brushed aside the tags of chokers by chasing down the shortest World Cup knockout target of 133. We will have to wait for the Semis now..May the best team win.

On big days, you are looking for early signs that everything is going to be all right. Too much experiment sometimes yields the worst result for you. If you can remind April 02, 2011(Final) an experiment at the wee hours of game was introduced by SLankan side in that match also.

2007 (Final) , 2011 (Final) and 2015 (QF) SL has been the most consistent team in big tournaments but the irony they  couldn't win it.

Sri Lanka tried all sorts of verbal gamesmanship. introducing debutant offspinner Tharindu Kaushal as a "duplicate Murali" and "mystery spinner". They made mystery moves, too. Kusal Perera was asked to open although Lahiru Thirimanne had scored 261 runs at the top of the order this World Cup.

A small margin of error brought an exit for Srilankans and disappointment for the most passionate Srilankan fans but the two legends will be missed in ODIs.

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