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Friday, January 8, 2010

मानवता पर हमला

ये मानवता पर हमला है कुछ और नहीं कह सकते हम |
शब्दों का एक सहारा है अब और नहीं चुप रह सकते हम |

क्या ऑस्ट्रेलिया सहनशीलता का परिचय दे रही है |
छात्रो कों जला कर खुद कों अच्छा राज्य बता रही है |

कार्टून से उठी नाराजगी उनकी सभ्यता कों दर्शा रही है |
दोनों देशों के बीच के राजनयिक रिश्तों मे खटास बड्पा रही है |

देश हमारा छोटा पड़ गया विदेश पढने कों जाते हैं |
अपने माँ बाप के अरमानो कों ताबूत में लपेटे आते हैं |

Monday, January 4, 2010

कैसे जीना सीखा



नये परिन्दे से सिखा है मैं ने वक्त को आजमाना।
कांटो से सिखा है फूलों के दामन में लिपट जाना॥

दुनिया कि कोसती निगाहों ने जिन्दगी को जीना सिखा दिया।
मांगकर पीता था पहले, जिसने मैखाना जाना सिखा दिया॥

दिल कि जवां धड्कनों ने कभी शायर तो कभी दीवाना बना दिया।
तारीफ़ के जुमलों ने मेरी सोच को एक नजराना बना दिया ॥

पूस की काली रात ने मुझे थरथराना सिखा दिया।
एक गरीब बनकर पैदा होना ने मुझे जीना सिखा दिया

Saturday, January 2, 2010

मै क्या हूँ ?


मनुष्य के स्वभिमानऔर अभिमान जैसी भावनाओ के उलझन में फस कर ये लिख बैठा |

अश्रु का मैं धार हूं या कोई प्रहार हूं।
मानवता का कोइ दूत हूं या कोई कुम्हार हूं॥

वक्त की मैं खोज हूं या कोई पुकार हूं।
भूत का मैं गर्त हूं या तुम्हें स्वीकार हूं।।

कट रही है जिन्दगी तलवार की दोहरी धार हूं।
जो मिट गया मिला नहीं, उस रेत की बहार हूं॥

अखण्ड हूं या शून्य हूं ,मगर किसी का प्यार हूं।
प्रलय की बहती धार हूं या जिन्दगी सवांर दूं॥

मिलूं तो कोहिनूर हूं या सुबह का ख्वाब हूं।
निश दिन का मैं कर्तव्य हूं या कोइ पडाव हूं॥

जिसका कोई अस्तितव नहीं वो एक हूं, अनेक हूं।
जलूं तो मैं चिराग हूं बुझूं तो फिर मैं खाक हूं॥

Wednesday, December 16, 2009

अलफ़ाज़ क्या कहेंगे !

आकाश का सूनापन ही हमें तन्हा भी जीना सिखाता है।
उद्वेलित मन भी कांप उठता है जब उनकी याद दिल धड्काता है॥

विरह कि तपिश आज भी डर का मौहाल बनाती है।
जब बेखुदी से होश में आने को जी मचल जाती है ॥

लोग कह्ते है मैं यूं ही लिखता हूं प्यार का अफ़साना।
बेवजह कलम और स्याही से कह्ता हूं खुद को उनका दीवाना॥

वो क्या जाने जो अल्फ़ाज़ों मे प्यार करते हैं।
हम तो उनकी एक झलक पाने को कितना इन्त्ज़ार करते हैं॥

Monday, December 14, 2009

यह परिदृश्य?



खौफनाक है यह परिदृश्य ,क्या होगा विश्व का भविष्य |
कौन जियेगा ,कौन मरेगा मानवता का कैसा रिस्क
मानव ख़ुद को मार रहा है हम कैसे इसे बचायेंगे||

लोगों की आवयश्कता अब बन रही समस्या|
ग्रह ,नक्षत्र और तारे क्या यही बच पायेंगे
मानव ख़ुद को मार रहा है हम कैसे इसे बचायेंगे||

कार्बन हो या मोनो कार्बन कैसे इसे घटाएंगे|
परिवर्तन एक कटु सत्य है कैसे इसे झुठ्लायेंगे
मानव ख़ुद को मार रहा है हम कैसे इसे बचायेंगे||

फिज्जी हो या वेटिकन सिटी एक लोग भी ना बच पायेंगे |
मानव ख़ुद को मार रहा है हम कैसे इसे बचायेंगे||

Friday, December 11, 2009

एक ख्वाब ?








वो जिन्दगी ही क्या, जिसका कोई वजूद ना हो।

वो आशियाना ही क्या, जो आंधियों मे मह्फ़ूज़ ना हो॥

गम के आंधियों में, बिखर जाते हैं रेत के घरौंदे।
वो जाम ही क्या जिसके पीने में बदनाम पैमाना ना हो॥

हंगामा वाजिब है ,लेकिन थोडी सी पी लेने दो ।
ए मौत तुम कल आना ,आज की शाम जी लेने दो॥

चौंककर नींद से यकायक, उठकर मैं बैठ जाता हूं।
जब ख्वाबों में कभी, खुद को इतना बेचैन पाता हूं॥

Sunday, December 6, 2009

विरह


दिल की फ़रयाद सिर्फ़ इतनी है, कि मरने से पहले उन्हे देख लें।,
विरह कि तपिश मे खुद जलें,और उनकी यादों को लम्हों मे समेट लें॥

वो मुझे शायद भुला दें, लेकिन उनकी यादें ही काफ़ी है मेरे जीने के लिये।
उनके आने कि आस भी शायद कम पर जाये जिन्दगी को आजमाने के लिये ॥

सावन की बरसात में उनका भींगना अब गम का घरौंदा बनाती है ।
अब तो धूप में बनी अपनी परछाई भी मुझे खूब डराती है ॥

मन्जिलें क्या है, रास्ता क्या है दूर तलक वीराना है ।
उनकी याद में मेरे अल्फ़ाजों का ये छॊटा सा फ़साना है ॥

Thursday, November 26, 2009

उनकी याद


मेरे दिल के आएने में हमेशा उनकी तस्वीर होती थी।
खुदा को ये मन्जूर ना हुआ तो इस दिल का क्या करें॥

उनकी याद में अब रोते है इसके सिवा हम क्या करें।
वो कह्ती हैं मुझे बेवफ़ा अब अपनी वफ़ा का क्या करें॥

मैं बेवफ़ा ही सही लेकिन उनकी यादों में तो जीता हूं।
तकलीफ़ तो तब होती है,जब उनके नाम का जाम पीता हूं॥

सोचा था उन्हें भुला दूंगा ,लेकिन हर पल उन्हे याद करता हूं।
कोइ बताये उन्हे कि आज भी मैं उनपे एतवार करता हूं॥

पथ्थर नहीं इन्सान हैं हम कैसे सहें टूटॆ दिल का सितम ।
अब अल्फ़ाज़ भी लडखडाते हैं जब लिखता हूं मैं दर्द ए गम ॥

Monday, October 26, 2009

अश्क भर आते हैं |

इन आंखों में जब अश्क भर आते हैं ।
कुछ लोग इसमें डूबते नज़र आते हैं॥

शिकवा या शिकायत नहीं किसि से
दिल धड्कने के सवब याद आते हैं|

मुश्किल है आज संभलना ए दोस्त क्योंकि
मुसीबत मे अब तिनके भी डूबते नजर आते हैं|

इस दिल का अफ़साना हम भी सुनाते लेकिन
अफ़सोस है कि ये उनके जाने के बाद आते हैं||

दिल को दिलाशा दूं कैसे, कैसे संभालूं इसे
ये उनकी याद है कि वो अब यादों मे भी नजर आते हैं।

सोचता हूं कोरे कागज पर गज़ल लिखूं या मौशिकि
उनके हर लब्ज मुझे अब बोल नज़र आते हैं ॥

Wednesday, October 21, 2009

काश ऐसे होते !

जिन्दगी नायाब तरीके से हम क्यों जीते हैं।
रातें हो जाती है कम , दिन को पीते हैं॥

सोचा था कल होगा अच्छा , आज को जीते हैं।
अपनों में रह्कर भी हम गैरों से होते हैं॥

नयी शहर है नयी चुनौती सोच में हम दूबे रह्ते हैं।
उनकी यादों में अक्सर यूं तन्हा खोये रह्ते हैं॥

गगन जैसे झुकते हम भी , होती एक कंचन काया।
सबसे प्यारे हम भी होते , अगर होती न संग माया॥

सपनों के शीशमहल भी अब टूटते दिखते हैं।
काश कोइ होता अपना ये हम किससे कह्ते हैं ॥

Friday, October 9, 2009

बचपन


वो दिन कितने अच्छे थे, जब तुम एक नादान बच्चे थे।
मुस्काते थे एक परी की तरह, कागज की तरह सच्चे थे॥

मन था चंचल, उद्वेलित, लेकिन धुन के पक्के थे।
काश कहूं मैं ये सब किससे कि तुम कितने अच्छे थे॥

याद करूं मैं निश दिन तुम को जब तुम ओझल हो जाते।
खुशी की रेत में, “मेरे गम” आसूं की तरह थे खो जाते॥

आज भी मैं यादों में खोया,वो दिन कोइ लौटा दे।
फिर से देखूं तुझे यूं ही,तू एक बार तो मुस्का दे॥

मैं भी पागल सोच रहा हूं, वो दिन कहां से लाउंगा।
ताश के बने घरों में , कैसे मैं रह पाउंगा॥

वो दिन कितने अच्छे थे, जब तुम एक नादान बच्चे थे।
मुस्काते थे एक परी की तरह,कागज की तरह सच्चे थे॥

Wednesday, September 16, 2009

जिन्दगी

जिन्दगी एक ख्वाब है जिसे देखने को जीता हूँ |
अब गम के आंसुओं को मैं अकेला पीता हूँ ||

मैं भी हँसता था कभी औरों की ख़ुशी को देखकर
आज अपनी ख़ुशी को भी तन्हाइयों में समेटता हूँ |

मैं बंदगी करता खुदा की अच्छाई को पाने कें लिए
इल्म है इतना की बातों को जुमलों में समेटता हूँ ||

ये शहर अच्छा नहीं अपने गाँव की यादों में
रोजी रोटी के लिए बस उन यादों को समेटता हूँ

क्या कहूं मैं कहना चाहूं ..............
जिदगी एक ख्वाब है जिसे देखने ............

Monday, August 31, 2009

वो सात दिन .....

वो सात दिन उनके साथ बिताये हुए
कुछ ख़ुशी कुछ गम आजमाए हुए

प्यार और नफरत की वो घडी
जिन्दगी को नया रुख दिलाये हुए

गम रहा की जब तक दम में दम रहे
इस दिल के बिछड़ जाने का गम रहे

आज लिखता हूँ उनकी यादों में
मैखानें भी जाता हूँ
फिर भी दुआ करता हूँ खुदा से
की उनका प्यार कभी मेरे प्यार से कम ना रहे
वो सात दिन उनके साथ बिताये हुए ................

Thursday, August 20, 2009

जिन्दगी

गम तो सबों को मिलती है लेकिन
खुशियाँ किसी किसी को नसीब होती है
मौत तो सबों को मिलती है
लेकिन एक अच्छी जिन्दगी किस्मत वालों को तह्रिब होती है
अपनों के लिए तो सभी जीते हैं
हमें चाहिए की हम औरों के लिए जियें
गम को भुलाने के लिए शराब तो सभी पीते हैं
हमें चाहिए की हम उन अश्कों को पियें
जिन्दगी एक दास्ताँ नहीं जिसे हम लिखें
पहिलेयों का संघर्ष कोई कम लिखें
दुनिया की रीती रिवाजों का सितम लिखे
अपनी समझ से कभी गम न लिखे
अगर लिखे तो ख़ुशी के आसूओं में आँखों को नम लिखे

Tuesday, August 18, 2009

आज़ादी के मायने

आज़ादी किसे अच्छी नही लगती वो खूंटे से बंधा पशु हो या फिर पिंजरे में बंद पक्षी , बचपन की यादों को ताज़ा करने के लिए काफ़ी हैं लेकिन क्या सही मायने में हम आजाद हैं |कुछ सवाल ऐसे हैं जो इस मानवता को झकझोरने के लिए काफ़ी हैं आज हम ने आज़ादी के ६२ वें सालगिरह को मनाया है लेकिन आज भी हम आज़ादी की सच्चाई से बहुत दूर हैं |देश आज भी गरीबी और भूख मरी की समस्या से जूझ रहा है घोषणाओं और वादों से गरीबों का पेट तो नही भरा जा सकता उनके लिए कौन सी आज़ादी और कैसी आज़ादी वो इन चीजों को शायद जानते भी नही |
विकास के रास्ते पर हमने अपने कदम इतने तेज बढाये की गाँव का भारत बहुत पीछे छुट गया और विकासवादी सिध्यांतों का पीछा करने में हम आजाद भारत के गाँव के सपने भूल गए क्या यही है हमारी आज़ादी आज भी अगर लड़कियों को घर से निकलने में डर लगता हो तो कैसी आज़ादी क्या मानवता का गला घोट कर शिखर पर पहुंचना ही आज़ादी है अगर ऐसा है टी हम सही मायने में आजाद हो चुके हैं अन्यथा आज भी गाँव का भारत और उसकी आधी आबादी को दो जून की रोटी ठीक से नही मिल पा रही है |
सरकारी नीतियों से सिर्फ़ संतुष्टि मिल सकती है वो भी पल भर के लिए लेकिन मानवता के कल्याण के लिए एक ऐसे क्रांति कई जरूरत है जिसकी क्रांति से बदलाव लाना सम्भव है लेकिन सबसे ज्यादे जरूरत है ऐसे क्रांतिकारी की जो क्रांति की मसाल जला सके .शब्दों में अब उतनी ताकत नही जो वैसी क्रांति ला सके जैसा की पहले हुआ करता था अब लिखे जरूर जाते हैं लेकिन उनपे अम्ल नही किया जाता है सिर्फ़ एक दिन निर्धारित होते हैं जिसमें हमारी सरकार गरीबों की समस्या से सबको रु बरू करा देती है लेकिन उनके उपाय नही होते हैं |अगर ऐसी आजदी भारत्वासिओं को प्यारी है तो मैं ऐसा भारत वासी कहलाना पसंद नही करूंगा |
अगर हम सही मायने में भारतीय हैं तो हमें मानवता के कल्याण के लिए एक ठोस कदम उठाने की जरूरत है अगर हम ऐसा करने में सफल होते हैं तो हम सच्चे भरतीय कहलाने के पुरे हक़दार हैं अन्यथा नही |आख़िर इन ६२ सालों में बदला क्या सिर्फ़ हमारे कपड़े और हमारी अनुसरण करने की शक्ति और तो कुछ भी नही बदला |सही मायने में अगर हम्मे मानवीयता शेष है तो एक ऐसा प्रयास करें जो आज़ादी के सही मायनों को दर्शाती हो |

Tuesday, May 12, 2009

माँ दिवस क्यों ?

" दूरजाकर भी दूर जा न सके , हमें अफ़सोस की हम उन्हें भुला न सके
वो लाख कहें मैं दूर हूँ लेकिन हम उन्हें ख़ुद से जुदा पा न सके
कल्पनों की दुनिया में हम मानवीय पक्षी कभी ऐसी उड़न भरने को सोचते हैं जिसके न क्षितिज की सीमाओं का पता और न ही धरती का \ विज्ञानं के इस बदलते युग ने सही मायने में इन्सान के जीवन की हर चीज बदल दी है , लेकिन क्या इन बदलती परिस्थितयों ने रिश्तों को बदलने का बीरा उठाया है , हाँ शहरों में रहते हुए भाग दौड़ की जिन्दगी में ये शब्द कटु तो हो सकते है लेकिन यह हमारे जीवन का सत्य बनता जा रहा है क्योंकि आज हम माँ जैसी अमूल्य रिश्तों को याद करने के लिए एक दिन निर्धारित करते हैं , क्या हमारे पास वर्षों की खुशी में मात्र एक दिन रह जाते हैं जब हम अपनी माँ को याद रख सकें जिस माँ ने हमें नौ माह अपने गर्भ में अपनी खून से सीचा , लाख तकलीफों के बावजूद हमें जन्म दिया और ऊँगली पकड़कर चलना सिखाया क्या मात्र एक दिन की खुशी उनके कलेजे को ठंडक पहुँचा सकती है
बचपन में सुना था की अख़बारों मं पढ़े लिखे लोग अपनी बात लिखते हैं लेकिन अज पता चला की ये तो व्यवसाई बुन बैठे हैं , अख़बारों के जरिये माँ को याद करने और खुसरखने का तरीके परोसते हैं संस्कृत के शालोकों यह कह गया है की पुत्र कुपुत्र हो सकते हैं लेकिन माता कुमाता नही हो सकती जीवन की रफ्तार ने मानवीय संवेदनाओं को एक दिन में पिरोने की कोशिश की है लेकिन इस रफ्तार ने हमारी मानवीय भावनाओं को आहात किया है फिल्मों को हमारे समाज का आइना मन जाता है तभी तो दीवार जैसी फिल्मों के अभिभाषण " मेरे पास माँ है " अज भी लोगों की जुबान से कभी न कभी चिपक जाते हैं , सृष्टि की संरंचना में हम प्रकृति की इस अमूल्य देन को अलग नही कर सकते , विज्ञानं हमें टेस्ट ट्यूब बेबी और क्लोनिंग जैसे उपहारों से खुश करने की लाख कोशिश कर ले लेकिन माँ की ममता और उसकी गोद का प्यार नही दे सकती एक मानव होने के नाते हम्मे अगर सोचने की तनिक भी क्षमता शेष है तो दिवस के बंधन से मुक्त होकर माँ की ममता और उसके प्यार की खातिर इन बन्धनों में न बढें , यह हमारी मानवीय अपील है

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